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178/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इसी प्रकार आगे के श्लोक में भी यह औचित्य परम लुभावन है। यथा"धर्मस्वरूपमिति सैष निशभ्य सम्यग्नर्मप्रसाधनकरं करणं नियम्य । कर्मप्रणाशनकशासनकृधूरीणं शर्मैकसाधनतयार्थितवान् प्रवीणः।। 175
प्रकृत पद्य में कहा गया है कि जयकुमार धर्मस्वरूप का उपदेश सुनकर पीड़ा के साधन भूत इन्द्रियों का नियन्त्रण कर कर्म जन्य फल के विनाश में समर्थ, उपदेश करने में दक्ष, कल्याण के एकमात्र साधन की इच्छा में प्रवीण हुआ ।
इस पद्य में भी लक्ष्यानुसार व्रताचरण का उचित निर्देश किया गया है। 17. तत्त्वौचित्य : तत्त्वौचित्य का विवेचन करते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि सत्य ज्ञान
के निर्णय से हृदय के अनुरूप कवि का काव्य उपादेय होता है । अर्थात् उस काव्य को संसार में सब लोग हृदय से ग्रहण करते हैं । यदि यथार्थ तत्त्व का निरूपण न हो तो काव्य मिथ्या की प्रतीति मात्र होने से उपादेय नहीं होता।
जयोदय महाकाव्य के तेइसवें सर्ग में यह विचार निश्चयात्मक रूप में बताया गया है कि संसार के सब पदार्थ नश्वर हैं इस संसार में आत्मचिन्तन ही सार है । यही यथार्थ तत्त्व है । इसी पर ये सुभाषित स्थायी टेक के साथ अनेकों गान इस सर्ग में गीत के रूप में दिये गये हैं । यथा
"हे मन आत्महितं न कृतम्" अपने मन को ही सम्बोधन करके कहा जा रहा है कि हे चित तुमने अपने हेतु अर्थात् आत्मा के हेतु कुछ भी कार्य नहीं किया ।
कोई भी जन्तु गर्भावस्था में गर्भ में निवास करता है एवं गर्भाशय के भीतर मल-मूत्रादि सम्पृक्त ही जीवन में रहता है।
प्रकृत पद्य में यह कहा गया है कि माता के पेट में नौ महीने तक ची मल-मूत्र के सहित मैं निवास किया । वाल्यावस्था भी खेल करके ही अनेक उत्साहों के साथ व्यतीत किया एवं उचित-अनुचित रूपों से इस अवस्था को व्यतीत किया । युवावस्था में निर्दयता के साथ उद्धत आचरण किया । मद से मत्त यह वित्त दिन-रात युवतियों में रत रहा । इस भाव को प्रकृत महाकाव्य में अनुपमेय ढंग से चित्रित किया गया है -
"तव मम तव मम लपननियुक्त्याखिलमायुर्विगतम् । हे मन आत्महितं न कृतम्॥ हा हे मन॥ स्थायी ॥ नव मासा वासाय वसाभिर्मातृशकृ तिसहितम् । शैशवमपि शवलं किल खेलैः कृतोचितानुचितम् ॥ हेमन। तारुण्ये कारुण्येन विनौद्धत्यमिहाचरितम् । मदमत्तस्य तवाहर्निशमपि चित्तं युवतिरतम् ॥ हे मन ॥79