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142/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक राजकुमारों का परिचय देने वाली विद्या देवी से कहती है कि हे वाणी ! मुझ जैसी बाला का मन तो इन राजाओं में से किसी एक ही के लिये उपहार बनेगा तथा अन्य के लिये अपहार बनकर निरादर का स्थान ही प्राप्त करायेगा । ऐसी स्थिति में मैं किस प्रकार से उन लोगों का अतिथि सत्कार करूँ ? क्योंकि मेरी यह अनभीष्टता कृपाणी (रिका) का ही काम करेगी इसलिये आप उसके लिये मार्ग बतावें । ____ यहाँ आलङ्कारिक भाषा में तात्पर्य निबद्ध होने पर भी शाब्दिक सरलता एवं स्वाभाविक लौकिक गतिशीलता होने के कारण प्रसाद गुण का रम्य निरूपण हुआ है।
इसी प्रकार अन्य स्थलों में प्राप्त प्रसाद गुण के हृदयग्राही चित्रण से महाकवि-चातुरी प्रमाणित होती है । एक उदाहरण पर दृष्टिपात करें
"सद्धिराशासितः प्राप भूमिभृद्भवनं पुनः । एधयन्मोदपाथोधिं स राजा विशदांशुकः ॥17
इस पद्य का शब्द विन्यास सर्वथा सरल है जिसका अर्थ है कि जिस प्रकार अपने स्वच्छ किरणों से युक्त नक्षत्रों से आवृत्त चन्द्रमा समुद्र को उल्लासित करता हुआ उदयाचल पर पहुंचता है, उसी प्रकार वह राजा जयकुमार स्वच्छ वस्त्रों को धारण किया हुआ सज्जनों से आवृत्त अकम्पन के लिये हर्षोत्पादक, उनके भवन में पहुँचा ।
यहाँ प्रत्येक शब्द सरल एवं समास बहुल न होने से अर्थ शीघ्र ही प्रदान करता है। ऐसे ही बहुशः स्थलों में प्रसाद गुण दर्शनीय है । ____ मैंने यहाँ संक्षेप में ही गुणों पर दृष्टिपात किया है । वैसे जयोदय महाकाव्य एक प्रखर विद्वान् की रचना है । फलतः उसमें व्याकरणानुसारी परुष प्रयोग ही अधिक है । अतः ओजगुण ही अधिक परिव्याप्त हुआ है । अन्य गुण यथाविषय यथावसर प्रयुक्त हैं ।
जयोदय में रीति विमर्श ___ जयोदय में रीति विमर्श के पूर्व रीति पर विचार करना अप्रासङ्गिक नहीं है । रीति मत के प्रधान आचार्य वामन हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम अपने ग्रन्थ काव्यालङ्कार सूत्र में रीति का आत्मा के रूप में प्रयोग किया । इनके पूर्व भी यह तत्त्व किसी न किसी रूप में विद्यमान था । आचार्य भरत मुनि ने रीति का उल्लेख तो नहीं किया किन्तु विभिन्न देशों में प्रचलित पाँच प्रवृत्तियों का परिगणन अवश्य किया है -
"चतुर्विधाप्रवृत्तिश्च प्रोक्ता नाट्यप्रयोगतः । आवन्ती दाक्षिणात्या च पाञ्चाली पौण्डू मागधी ॥18 -
भरत की प्रवृत्ति वामन की रीति से अधिक व्यापक है । रीति का तात्पर्य केवल भाषा प्रयोग से, परन्तु भरत की प्रवृत्ति का सम्बन्ध केवल भाषा से ही न होकर वेश और आचार