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________________ 124/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन हुआ । उस सभा में सुलोचना के प्रति प्रेम भावना से मानी जन पहुँचें तथा मानहीनों का समूह भी विमानारूढ़ देवमण्डल भी आ पहुँचा। इसमें कोई तर्क की बात नहीं है अथवा कोई आश्चर्य नहीं है । क्योंकि सुलोचना परम सुन्दरी एवं काशी नरेश अकम्पन की राजकुमारी है। मानहीन लोग पहुँचे अथवा देवगण पहुँचे । इसमें क्या विचारणीय है ? अर्थात् कुछ नहीं । इस प्रकार प्रश्न के द्वारा काकुवक्रोक्ति अलङ्कार निष्पन्न होता है। 33. स्वभावोक्ति : इस महाकाव्य में स्वभावोक्ति के पर्याप्त स्थल मिलेंगे । इस अलङ्कार कर लक्षण साहित्यदर्पण में दिया गया है कि बालक आदि पदार्थों के अपनी क्रिया और स्वरूप विधि से वर्णन को स्वभावोक्ति कहते हैं143 । यह सहृदयों के द्वारा ही वेद्य होता है पामर जनों से गेय नहीं होता । क्योंकि यहाँ विशेष दक्षता के रूप में बोध कराया जाता है। इसकी व्युत्पत्ति भी ऐसी है 'स्वभावस्य उक्तिर्यत्र स स्वभावोक्तिरलङ्कारः।' विशेष दक्षता से बोध करने में तात्पर्य यह है कि जो पामर जनों से गेय हैं, ऐसी स्वाभाविक चेष्टा वर्णन में यह स्वभावोक्ति अलङ्कार नहीं होगा। जैसे - यह गाय का बच्चा ही अच्छे डील-डौल वाला बैल है, मुख से घास खाता है, कामेन्द्रिय से मूत्र क्षरण करता है और अपान मार्ग से गोबर छोड़ता है । यह यथार्थतः स्वाभाविक वर्णन है । परन्तु यहाँ कोई कवि प्रतिभा से सम्बन्धित नहीं है। किन्तु पामर जनों से गेय है । अतएव यहाँ स्वभावोक्ति अलङ्कार नहीं होगा । ऐसा साहित्यदर्पणकार के टीकाकार कृष्णमोहन ठाकुर ने लिखा है - 'गोरपत्यंवलीबर्दे घासमत्ति मुखेन सः। मूत्र मुंचति शिष्नेनअपानेन तु गोमयम् ।' महाकाव्य से अवतरित श्लोक द्रष्टव्य हैं - "अयि रूपममुष्य भूषिणः सुषमाभिश्च सुधांशुदूषिणः । द्रुतमेत च पश्यतेति वाऽमृतकुल्येव ससार सारवाक् ।'744 “अथ राजपथान् जनीजनः सविभूषोऽरमभूषयद् घनः । सदनान्मदनादनात्मको वरमागत्य निरीक्षितुं सकः ॥145 प्रस्तुत पद्य द्वय में वर्णित है कि वर के रूप में पहुंचे हुए भव्य सौन्दर्यशाली जयकुमार को देखने के लिये सब लोग उत्सुक हुए एवं राजमार्ग दर्शकों से भर गया । इस प्रकार परस्पर एक दूसरे से कहने लगे कि शीघ्र आइए अपने सौन्दर्य से चन्द्रमा को भी दूषित करने वाले भव्य रूप को देखिये । इसी प्रकार पुनः दिया गया है कि स्त्रियों का बहुत बड़ा समूह कामासक्त चित्त वासगृह से निकलकर वर को देखने के लिये राजमार्ग में व्याप्त हो गया । अनुपम अदृष्ट वस्तु को देखने के लिये स्वभावतः सबकी प्रवृत्ति होती है तथा दूसरों को दिखाने के लिये भी प्रयास किया जाता है । उसी के अनुसार यहाँ वर्णन है । इतना ही नहीं आगे के श्लोकों में भी इसकी धारा बहती चली गयी है ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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