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________________ 120 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन " आजिषु तत्करवालैर्ह यक्षुरक्षोदितासु संपतितम् । वंशान्मुक्ता बीजं पल्लवितोऽभूद्यशोद्रुरितः 11124 इस पद्य में युद्धस्थल में एक राजा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि युद्ध भूमि घोड़ों की खुरों से जिसकी पृथ्वी चूर्ण हो गयी है, वहाँ पर उस राजा के तलवार से हाथियों के जो कुम्भस्थल छिन्न-भिन्न किये गये। उनसे गजमुक्त रूपी बीज गिर पड़ा है। अतएव उस बीज से उक्त राजा का यशस्वी वृक्ष पल्लवित हो रहा है। बीज से वृक्षोत्पत्ति का होना कार्यकारण मूलक अनुमान अलङ्कार सुस्पष्ट है । यहाँ गजमुक्त बीज से राजा के यशो वृक्ष का प्रसूत होना दिखाया गया है। अतएव अनुमानालङ्कार अपने रूप में परिपुष्ट है। श्वेतमुक्तामणि बीज से श्वेत यश की उत्पत्ति का होना समुचित ही है । इसका एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है। - " स्तनश्रिया ते पृथुलस्तनी भो नदं न यातीति तिरोभवेति । लब्धप्रतिद्वन्द्विपदो मदेन निषादिनोक्ता प्रमदा पथिस्ठा ।। ' '125 I इस पद्य में किसी सुन्दरी को देखकर जो मार्ग में खड़ी है, एक हस्तिपक ( पिलवान) उससे कहता है कि हे स्थूल स्तनी ! प्रमदा यह मेरा हाथी तुम्हारे स्तन शोभा से अपना प्रतिद्वन्दी समझकर आगे नहीं बढ़ रहा है अर्थात् नदी में प्रवेश नहीं कर रहा है । इसलिए तुम कहीं छिप जाओ। जैसे एक गज अपने प्रतिद्वन्दी गज को देखकर खड़ा हो जाता है एवं मत्ततावश आगे नहीं बढ़ता, वैसे ही गज कुम्भस्थल तथा स्थूल स्तनी में द्वन्दी - प्रतिद्वन्दी भाव बताया गया है । जहाँ-जहाँ द्वन्दी - प्रतिद्वन्दी भाव होता है, वहाँ गतिविधि में शैथिल्य का आना मन्दता का स्वरूप बनना स्वाभाविक होता है । उसी स्वरूप को यहाँ भी कवि ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से इस अलंकार को जड़ दिया । 25. यथासंख्यः यथा संख्य का अर्थ है 'संख्यामनतिक्रम्य इति यथा संख्यम्' जहाँ निर्दिष्ट पदार्थों के कथन में क्रम बैठा हुआ । प्रथम का प्रथम के साथ, द्वितीय का द्वितीय के साथ, तृतीय का तृतीय के साथ निर्देश हो वहाँ यथासंख्य अलङ्कार होता है 26 । इस महाकाव्य में यथासख्य अलङ्कार का अपना उत्तम स्थान है । जैसे 1 "जिह्वया गुणिगुणेषु संजरंचेतसा खलजनेषु संवरम् । निर्बलोद्धतिपरस्तु कर्मणा स्वौक एकमभवत्तु शर्मणाम् ॥' 11127 प्रकृत पद्य में यह दिखाया गया है कि वह राजा जयकुमार जिह्वा से गुणियों के गुणों का गान करता हुआ, चित्त से दुर्जनों का निरोध करता हुआ, कर्तव्य से निर्बलों के उद्धार में तत्पर होता हुआ, अपने और दूसरों के कल्याण के लिये वह एक अद्वितीय स्थान बना । यहाँ प्रथम गुणीजनों में ततः खल जनों में तत्पश्चात् निर्बलों की रक्षादि में तत्परता का वर्णन किया गया है । इस प्रकार क्रमिक स्वरूप होने से एवं सुन्दर-असुन्दर दोनों प्रकार के योगों का वर्णन होने से सदसद् योग यथासंख्य अलङ्कार का रम्य प्रयोग है ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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