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118/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
इसी प्रकार अधोलिखित पद्य में भी यह अलङ्कार द्रष्टव्य है
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'अशोक आलोक्य पतिं ह्यशोकं प्रशान्तचित्तं व्यकसत्सुरोकम् । रागेण राजीवदृशः समेतं पादप्रहारं स कुतः सहेत || ' 115
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यहाँ प्रशान्तचित्त, शोकरहित मुनिराज को देखकर अशोक वृक्ष स्वयं ही विकसित हो गया । ऐसा वर्णन किया गया है । यह विकास भी नायिका पादप्रहार के बिना ही दिखाया गया है । अतएव ये भी उक्त निमित्तक विभावना अलङ्कार है
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22. समालङ्कार : जहाँ योग्य वस्तु का उसके अनुकूल प्रशंसनीय योजना (सम्बन्ध ) बतायी जाय वहाँ समालङ्कार होता है 1 16 ।
जयोदय महाकाव्य में समालङ्कार के निरूपण में कवि अनायास वर्णन में सिद्धहस्त प्रतीत होता है । जैसे -
"सुकन्दशम्पे च कलङ्किरात्री विषादिदुर्गे स्मरशर्मपात्री । विधेश्च संयोजयतोऽभ्युपायः परस्पर योग्यसमागमाय ।। ' 11
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इसमें कहा गया है कि विधाता ने ( सुकन्द शोभन रूपेण कंजलं ददातीति कन्दो मेघः शम्पाशं शान्तिं पातीति शम्पा विद्युतः) मेघ और बिजली का परस्पर साहचार्य बनाते हुए, कलङ्की चन्द्ररात्रि अन्धकार पूर्ण तमिस्रा इन दोनों का सम्बन्ध जोड़ते हुए, बिषादी शङ्कर (विषमत्ति तच्छील: विषादी) एवं दुर्गा (दुःखेन गम्यते इति दुर्गा) का सम्बन्ध जोड़ते हुए, इसी प्रकार स्मर ( स्मरण योग्य) कामदेव के साथ शर्मकारिणी रति का समागम कर विधाता यह सूचित करते हैं कि उनका उद्योग पारस्परिक सम्बन्ध सदैव योग्य के साथ ही होता है । अतएव इस विषय में विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि विधाता सुलोचना का सम्बन्ध योग्य के साथ ही करेंगे। यहाँ योग्य के साथ समागम का वर्णन करने से समालङ्कार है 1
ऐसे ही इसी सर्ग का अग्रिम श्लोक भी इसी अलङ्कार का पोषक है ।
'अदृश्यरूपा वितनो रतिर्व्यभादभूत् सुभद्रा भरतस्य वल्लभा । वरिष्यति त्वां तु सतीति सत्तम चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः ॥ 18
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इसमें कहा गया है कि शरीर रहित (अनङ्ग) कामदेव से ही अदृश्य रूपा रति का सम्बन्ध सुशोभित हुआ है । उसी प्रकार सुभद्रा का सम्बन्ध चक्रवर्ती महाराज भरत से हुआ। ऐसा देखने से यह प्रतीत होता है कि सती सुलोचना, हे राजकुमार ! तुम्हारा ही वरण करेगी। क्योंकि योग्य के साथ योग्य का सम्बन्ध ही सुशोभित होता है ।
23. काव्यलिङ्ग : जहाँ किसी वस्तु के प्रति वाक्यार्थ या पदार्थ कारण दिखाये जाते हों, वहाँ काव्यलिङ्गालङ्कार होता है119 । जैसे -