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पंचम अध्याय /97 होता है । 'सालंकार काव्य ही ग्राह्य है' ऐसा आचार्य वामन ने स्वीकार किया है । उनकी मान्यता के अनुसार सौन्दर्य ही अलङ्कार है । काव्यशास्त्र में यह अलङ्कार यमक, उपमा आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है । दोष त्याग तथा गुणादि के ग्रहण से ही काव्य सौन्दर्य युक्त होता हैं । भाव परक व्युत्पत्ति से निष्पन्न अलंकार शब्द काव्य सौन्दर्य की हेतुभूत गुणादि समग्र तत्त्वों के अर्थ में स्वीकृत है । करण व्युत्पत्ति से शब्दार्थोभयालंकार ही उसके अभिधेय कहे जा सकते हैं । यद्यपि काव्य शास्त्र के लिये 'अलङ्कार-शास्त्र' नाम का व्यवहार सर्वथा विलुप्त नहीं है। आचार्यों की दृष्टिः
चित्र मिमांसा में आचार्य अप्पय दीक्षित ने शब्दालङ्कारों को नीरस बताकर कवियों का उनके प्रति अनादर सूचित किया है । तथापि मम्मट आदि अन्य विचारकों ने शब्द चित्र का चित्रण किया ही है । आचार्य भामह के शब्दों में 'काव्य में शब्दार्थ की वक्रता से युक्त उक्ति अलङ्कार है।'' उन्होंने वक्रोक्ति रूप अतिशयोक्ति को ही समस्त अलङ्कारों का मूल माना है । इसी से ही अर्थों का विभाजन होता है ।
___ आचार्य दण्डी ने काव्य शोभाकर सभी धर्मों का अलङ्कार को ही प्राधान्येन स्वीकार किया है । रसभाव आदि को रसवत्" अलङ्कार में परिगृहीत कर अलङ्कार का अङ्गित्व सिद्ध किया है । सन्धि, सन्ध्यङ्ग, वृत्ति, वृत्यङ्ग आदि को भी अलङ्कार की संज्ञा देकर आचार्य ने इसके व्यापकत्व को प्रतिपादित किया है । _ 'सालङ्कारस्य काव्यता' कहकर वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्तक ने काव्य में अलङ्कार को महत्व प्रदान किया है । शरीर के शोभातिशायी कटक, कुण्डल आदि की भाति काव्य में अलङ्कार को भी शोभाधायक माना है । 'अलङ्कार से काव्य की शोभा होती है' को प्रतिपादित करते हुए आचार्य भोजराज ने काव्य शोभाकर गुण, रसादि को भी अलङ्कार की संज्ञा से अभिहित किया है । यही नहीं, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, रसोक्ति रूप अलङ्कारों के वर्गत्रय को स्वीकार कर आचार्य ने इस सम्प्रदाय को महत्व प्रदान किया है। आचार्य आनन्दवर्धन ने अलङ्कार सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित अलङ्कार के अङ्गित्व पर आक्षेप प्रस्तुत करते हुए अलङ्कार को रसादि रूप काव्यात्मा का अङ्गरूप से होना स्वीकार किया है" । आनन्दवर्धन, तदनुयायी अभिनवगुप्त, मम्मट आदि ने शरीर के बाह्य प्रसाधन कटक, कुण्डलादि की भाँति शब्दार्थ रूप काव्य शरीर में अलङ्कारों को मान्यता प्रदान की है । पर्यालोचनया प्रतीत होता है कि परवर्ती काव्य-शास्त्र में अलङ्कार का यही रूप मान्य हुआ ।
राजशेखर, हेमचन्द्र, विद्याधर, विद्यानाथ, रुद्रभट्ट वागभट्ट विश्वनाथ, भानुदत्त मिश्र, केशव मिश्र, जगन्नाथ, आदि आचार्यों ने आनन्द एवं मम्मट का पूर्णतः