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चतुर्थ अध्याय /75 ने कहा कि मैं तुम्हारे आमों को दबाकर ही देख लूँ कि यह कैसे कोमल हैं । इस पर वह बोली कि हे भाग्यशालिन् ! चूस कर ही क्यों नहीं देख लेते ।
- यहाँ आम्र फल देने वाली स्त्री से दबाकर देखना कि यह कोमल है या कैसा है ? इसके सम्बन्ध में यह उत्तर देना कि चूस कर ही यह मधुर है या खट्ठा है, क्यों नहीं देख लेते । यह प्रत्युत्तर बाराती को मूर्ख बनाने की दृष्टि से कहा गया है अर्थात् मातृभाव को प्रगट कर बाराती को उस सुन्दरी ने मूक बना दिया। इस आशय की अनुपम छटा अवलोकनीय
"उपपीडनतोऽस्मि तन्वि भावादनुभूष्णुस्तवकाम्रकाम्रतां वा । वत वीक्षत चूषणेन भागिन्निति सा प्राह च चूतदा शुभाङ्गी ॥41
यहाँ पर आम्रफल को दबाकर कोमलता आदि के ज्ञान हेतु जो कहा गया है, वही आलम्बन विभाव है तथा उसकी ओर देखना उद्दीपन विभाव है । तदनुसार इच्छा करना, मुख का उस काल में फैलना, दाँत आदि का कुछ मुस्कुराहट के साथ दृश्य बन जाना अनुभाव है । मनोवृत्ति को तिरोहित रखना व्यभिचारी भाव है । हास्य इसका स्थायी भाव होने से हास्य रस निष्पन्न होता है।
इसी प्रकार हास्य रस की मनोरम व्यंजना द्रष्टव्य है - "तव सम्मुखमसम्यहं पिपासुः सुदतीत्थं गदितापि मुग्धिकाशु । कलशी समुपाहरत्तु यावत् स्मितपुष्पैरियमञ्चितापि तावत् ॥42
अर्थात् एक बाराती मुग्धा सुन्दरी से कहता है कि तुम्हारे समक्ष मैं प्यासा पड़ा हुआ हूँ। ऐसा कहने पर वह सुन्दरी शीघ्र जल का कलश उठा लायी यह देखकर वह युवक मुस्कुराहट से भर गया तथा वह मुग्धा भी रोमांचित हो गयी । यथा -
इसमें मुग्धा सुन्दरी द्वारा जल कलश का दर्शन आलम्बन विभाव है तथा समीप में लाना उद्दीपन विभाव है । रोमांचित होना तथा मुख का विकसित होना अनुभाव है मनोवृत्ति का तिरोहित होना व्यभिचारी भाव है। हास्य स्थायीभाव होने से हास रस की मनोरम व्यंजना
___ किसी बराती को पसीना आ गया । कोई युवती यह देखकर समझी कि इसे गर्मी के कारण पसीना उत्पन्न हुआ है । ऐसा सोचकर वह विजन (पंखा) संचालन करने लगी। ऐसा देखकर वह बाराती भी गर्मी का बहाना कर अपने मुख को ऊँचा कर लज्जा को त्यागकर सहर्ष उसके मुख को देखने लगा । इसका मनोरम वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है -
"अपि सात्त्विकसिप्रभागुदीक्ष्य व्यजनं कोऽपि विधुन्वती सहर्षः । कलितोष्ममिषोऽभ्युदस्तवस्त्रो ह्रियमुज्झित्य तदाननं ददर्श ॥143