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74/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन का सम्बन्ध भी शाश्वत है । बिना दीपक के प्रभा नहीं और प्रभा दीपक से अतिरिक्त में सम्भव नहीं । नर शिरोमणि जयकुमार यदि निष्पाप रहा तो वह भी सदाचार में गुणों परायण थी । यथा -
"जगदुद्योतनाय सति दीपे साभासा भाति स्म समीपे । नरशिरोमणिर्भुवि निष्पापः सापि सदाचरणे गुणमाप ॥138 इसी प्रकार एक और उदाहरण देखिये - "न स्वप्नेऽपि हृदौज्झि कदाचिन्नतभ्रवः कथमस्तु स वाचि । । कर्मणा तु विनयैक भुजापि व्यत्ययेन यज इत्यथवापि ॥139 उक्त श्लोक में भी जयकुमार और सुलोचना का अक्षुण्ण प्रेम दिखाया गया है -
स्वप्न में भी वह जयकुमार सुन्दरी सुलोचना के हृदय से कभी पृथक् नहीं हुआ । वाणी से (शब्द से) पृथक् होने की तो बात ही क्या है? विनय मात्र कृति में तत्पर रहने वाली सुलोचना के हृदय से भला वह अलग (पृथक्) कैसे जा सकता है ।
उपर्युक्त श्लोकों में परस्पर जयकुमार एवं सुलोचना एक दूसरे के प्रति आलम्बन हैं तथा उनकी मनोवृत्ति का मिलना उद्दीपन है । मधुर बोलना आदि अनुभाव है तथा धैर्य, स्मृति आदि व्यभिचारी हैं । इस प्रकार स्थायी भाव रति के द्वारा शृङ्गार रस निष्पन्न होता है ।
तेइसवें सर्ग में भी शृङ्गार पोषक श्लोक मिलते हैं । एक स्थल पर कहा गया है कि मृगाक्षी सुलोचना के मधुर कान्ति, हास्य (विकास) से भरे हुए मुख कमल में भ्रमरवत् जय आसक्त हो गया । उसी प्रकार सुलोचना भी उसके निर्मल चरण कमलों में अपने नेत्र से विशेषतः देखती हुई सुशोभित हुई । जिसका उल्लेख कवि ने मनोरम ढंग से किया है । यथा
"मुखारविन्दे शुचिहासकेशरेऽलिवत्स मुग्धो मधुरे मृगीदृशः । प्रसन्नयोः पादसरोजयोर्दृशं विशेष्य पद्मापि जयस्य सम्बभौ ॥'40
इस पद्य में सुलोचना आलम्बन विभाव तथा पवित्र मुस्कुराहट एवं माधुर्य से भरा मुख कमल उद्दीपन है । सच्चे अनुराग को प्रगट करने वाली सुलोचना का नेत्र उसके चरण कमलों में पड़े हैं, अनुभाव है । हास्य संचारी भाव है । रति स्थायी भाव होने से शृङ्गार रस पुष्ट हो रहा है। हास्य रस -
जयोदय महाकाव्य के द्वादश सर्ग में महाराज अकम्पन के यहाँ जयकुमार के विवाह प्रसङ्ग के अवसर पर जब बाराती भोजन करने के लिये प्रवृत्त होते हैं उस काल में हास्य का मनोरम निरूपण किया गया है ।
परोसने वाली सुन्दरियाँ उपस्थित थीं । एक सुन्दरी आम्र परोस रही थी। उससे बाराती