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भूमिका एवं निवेदन
जसराज चौपड़ा पूर्व न्यायाधिपति एवं अध्यक्ष भारतीय संस्कृति समन्वय संस्थान, जोधपुर
अमानुषिकता, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, संवेदनहीनता, असहिष्णुता, धूर्तता एवं क्रूरता को यदि एक सामूहिक नाम प्रदान करना हो तो वह नाम है अनूप मण्डल । इसका उद्भव ही एक क्रूर एवं अमानुषिक प्रतिक्रिया का परिणाम है। इस मण्डल का प्राण वायु ही वैमनस्य एवं घृणा आधारित है। इसके अपने आत्मसुधार के कोई नियम या प्रावधान नहीं है। सिर्फ जैन समाज का विरोध कर उसे नीचा दिखाने के अलावा इस मण्डल या विचारधारा का अन्य कोई दार्शनिक आधार नहीं है। इनकी समस्त पुस्तकें, प्रकाशन एवं विज्ञप्तियां जैन धर्म के विरोध में जहर उगलने से अटी-पटी पड़ी हैं। इस विचारधारा में न कोई सकारात्मकता है न ही एक स्वच्छ समाज के निर्माण हेतु कोई सृजनात्मक सुझाव समाविष्ट हैं। इस अनूप मण्डलीय विचारधारा का एक मात्र उद्देश्य विध्वंसात्मक जहर उगलकर एक धर्म विशेष के प्रति जातीयगत घृणा एवं द्वेष फैलाना है। भोले-भाले आदिवासियों को भड़का कर समाज विशेष व उसके अहिंसक साधु-संतों पर हमले कर उनको नुकसान पहुंचाने के अलावा अन्य कोई इसकी गतिविधि ही नहीं है। ऐसी विकृत एवं घृणित विचारधारा पोषित करने वाले व्यक्ति को साधु जैसे पवित्र नाम से व्याख्यापित करना न सिर्फ साधुत्व का वरन् मानवीय सज्जनता एवं सहिष्णुता का भी घोर अपमान है। यह समझ से परे है कि व्यक्ति विशेष या कतिपय सिरफिरे व्यक्तियों का यह संगठन जिसे अनूप मण्डल के नाम से जाना जाता है कैसे तो जन्म ले पाया व कैसे अभी तक चल पा रहा है। एक आश्चर्यजनक बात है कि जिस विचारधारा से वैमनस्य, द्वेष, क्रूरता एवं नीच मनोवृत्ति का पोषण होता है व जिसका मानवीय संवेदना व सहिष्णुता से कोई दूर का भी लेना देना नहीं हो ऐसे घृणित उद्देश्यों को लेकर जन्मा संगठन पनप व पोषित कैसे हो पाता है क्योंकि इसे मानवीयता, धार्मिक सहिष्णुता, सदाचार, सद्भाव जैसे आदर्शों का पूरी तरह हनन होता है।
एक व्यक्ति जिनका नाम अनूपदास था उन्होंने अपना नाम चिरस्थायी करने हेतु स्वयं को तथाकथित साधु बता इस अनूप मण्डल की स्थापना वैश्य समाज के प्रति अपनी घृणा व वैमनस्य को घनीभूत, फलीभूत एवं प्रचारित करने के उद्देश्य से की थी। इनका विष वमन सामाजिक सौहार्द के लिए इतना घातक था कि तत्कालीन सिरोही राज्य ने इस विचारधारा के पोषक 18 नेतृत्व प्रदान करने वाले लोगों को उनकी आपराधिक कार्यवाही के लिए सजा से दंडित किया था। यही नहीं स्वयं राजस्थान सरकार ने इस दूषित एवं अनैतिक विचारधारा के परिपोषित एवं प्रसारित करने वाले साहित्य : जैसे पुस्तकें 'जगतहितकारिणी', आत्मपुराण', 'किताब मुफीद आम मौसुम वाह', 'न्यायाचिंतामणी' एवं अन्य प्रकाशन जैसे 'अनूपदासजी की आरती', 'दुखियों की पुकार' आदि पुस्तकों व दस्तावेजों व प्रकाशनों को
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