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________________ ((6) उच्छृंखल जीवन व्यतीत करते हुए देखे जा रहे हैं। यह जैन रसमाज के लिये भारी कलंक की बात है कि धर्म के नाम पर जैन समाज में अधर्म की वृद्धि की जा रही है और मानव सभ्यता का संहार किया जा रहा है। 1. इस प्रकार समाज में अधर्म का प्रचार होता हुआ देखकर ! किस सहृदय जैन के हृदय में दुःख नहीं होगा ? अतः इसकी निवृत्ति करना प्रत्येक जैन का धार्मिक कर्त्तव्य हो जाता है । जैन 'आगम में किसी भी स्थान पर साधु के सिवाय अन्य सबको कुपात्र नहीं कहा है और म यह अन्य प्रमाणों से ही सिद्ध होता है। तथापि जीतमल जी (तेरह पंथ के चौथे आचार्य) भ्रम 'विध्वंसन नामक अपने ग्रन्थ में लिखते हैं कि साधु थी अमेरा तो कुपात्र छे" (भ्र. पृ. 79 ) तथा “छः कम्यारा शस्त्र से कुपात्र छे" (पृ. 82 ) : इनकी मान्यता यह है कि तेरह पंथ के सिद्धान्त के अनुसार दीक्षा ग्रहण किये हुए साधु ही इस जगत में सुपात्र हैं। उनसे ििभन्न रसभी प्राणी कुपात्र हैं । इस प्रकार जीतमलजी तेरह 'पंथी स्माधुओं से भिन्न सबको कुपात्र कायम करके उनको सहायता वेदेना, उनके प्रति विनय करना आदि कार्यों को माप बताते हैं । - तः पुत्रकामता-पिता आदि गुरुकानों की सेवा-शुश्रूषा करना भभी उनके मनमत ऐसे पाप है। । इइन एक्कात पाप कार्यो को छोड़कर तेरे रह पायी मधुधुओं की रही सेवा करसना इझनके मस्त में एक मात्र धर्म क्या क्वार्यर्य हैहै । । भ्रातितश्वांसन पृपृष्ठ 79 में जीतमलकनी लिखते हैं कि "साधु श्री उमेश त्तो कुप्पाका छे तेतेने वीध्यां मेरी
SR No.006168
Book TitleSupatra Kupatra Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherAadinath Jain S M Sangh
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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