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(20) स्थान कहा जाता है। यह स्थान आर्या अर्थात् “आराद्यातः पापकर्मभ्य इति आर्यः।” इस व्युत्पत्ति के अनुसार पापों से रहित है। यह केवल यानी दोषों से वर्जित है। तथा अपूर्णतारहित
और न्यायसंगत और शुद्धि से सम्पन्न है। यह शल्य यानि माया निदान मिथ्यादर्शनरूप त्रिविध शल्यों का नाश करने वाला है। यह सिद्धि मुक्ति निर्वाण और निर्याण का मार्ग है। यह समस्त दुःखों का नाश करने वाला एकान्त रूप से सम्यक् और उत्तम
है।
इस पाठ में शास्त्रकार श्रावक के मार्ग को एकान्तरूप से धर्म पक्ष में स्थापन करते हैं और उसको पापरहित मोक्ष का मार्ग, दोष रहित एकान्त सम्यक् और उत्तम बताते हैं। अब पाठकों को विचार करना चाहिये कि जिस मार्ग की शास्त्रकार इतनी अधिक प्रशंसा कर रहे हैं और जिसको मोक्ष का मार्ग बताते हैं उस मार्ग से चलने वाला श्रावक कुपात्र कैसे हो सकता है? अतः ऐसे प्रशंसनीय मार्ग से चलने वाले को कुपात्र बताना तो जैन आगम को ही न मानना है।
शास्त्रों में जहां कहीं श्रावकों का प्रसंग आता है वहां शास्त्रकार उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, निन्दा नहीं करते हैं। निन्दा तो ये तेरह पंथी करते हैं। कहिये ! कुपात्र से बढ़कर श्रावकों के लिये दूसरा निन्दा सूचक विशेषण क्या हो सकता है? ठाणांग की टीका में टीकाकारने 'संघ' शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि-“संघः गुणरत्नपात्रभूतसत्वसमूहः" अर्थात् यहां संघशब्द का अर्थ उन प्राणियों का समूह है जा