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(18) ठहरता है, क्योंकि-वह वीतराग प्रणीत आगम में श्रद्धा रखता हुआ अपने श्रावक व्रत का पालन करता है और श्रावकों के लिए शास्त्र में वर्जित कार्यो का त्याग करता है। फिर जो शास्त्र की विधि के अनुसार कार्य करने वाला है वह भी यदि कुपात्र माना जायेगा तो सुपात्र कौन हो सकता है? शास्त्रकार तो जगहजगह श्रावक को धर्मिष्ठ, धर्मानुग, धर्मप्ररंजन आदि विशेषणों से विभूषित करके प्रशंसा करते हैं। फिर ऐसा व्यक्ति जो शास्त्र द्वारा प्रशंसित किया जा रहा है, कुपात्र कैसे कहा जा सकता है? देखिये उववाई सूत्र में श्रावक के लिये यह पाठ आया है
“अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मपलोइया धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति, सुसीला सुव्वया सुप्पिडयानंदा साहू" (श्री उववाई उत्तरार्द्ध)
अर्थात् श्रावक अल्प इच्छावाले अल्पआरंभ तथा अल्पपरिग्रह वाले होते हैं। वे धार्मिक यानि धर्माचरण करने वाले और धर्म के पीछे चलने वाले होते हैं। इतना ही नहीं किन्तु वे अत्यन्त धर्म में इच्छा रखने वाले तथा धर्म की व्याख्या करने वाले होते हैं। वे सदा धर्म की ओर दृष्टि रखते हैं। धर्म विरुद्ध कार्य करने में लज्जा करते हैं। उनका व्यवहार धर्म को लक्ष्य करके ही होता है। तथा वे अपनी आजीविका भी धर्म के साथ ही करते हैं। एवं वे सुशील और सुव्रत होते हैं। तथा व सुख से प्रसन्न करने योग्य साधुवत् होते हैं।