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________________ • (9) जीतमलजी लिखते हैं कि - "माँस मद्य भखे, स्त्री आदिक सेवे, बालमरण मरे ए नरक ना कारण कह्या । तिम विप्र जिमावे एह प्रिण नरक ना कारण छे । ब्राह्मण जिमायाँ तमतमा जाय । तमतमा तो अँधारा मां अंधारा ते एहवी नरक में जाय इम कह्यो, जो विप्र जिमाया पुण्य बँधे तो नरक क्यों कही ।" भ्रम विध्वंसन पृष्ठ 90 में जीतमलजी लिखते हैं कि "केटला एक पाखण्डी श्रावक जिमायाँ धर्म गणे ।” पृष्ठ 104 पर लिखते हैं कि"पडिमाधारी श्रावक पिण गृहस्थ छे । तेहना दान मी अनुमोदन वाला ने भी पाप हुवे । तो देवा वाला ने धर्म किम हुवे । " ॥ इन ऊपर लिखे हुए जीतमलजी के लेखों में स्पष्ट कहा 'हुआ है कि साधु से भिन्न सभी कुपात्र हैं। उनको दान देना एकान्त पाप है तथा ब्राह्मण भोजन कराने से नरक होता है। श्रावकों को देने से एकान्त पाप होता है। जो श्रावक प्रतिमाधारी है और साधु की तरह सर्व सावंद्य का त्यागी है तथा साधु की तरह 42 दोषों को त्याग कर आहार लेता है, जिसको शास्त्रकार समणभूया यानि साधु समान बतलाते हैं । उसको भी दान देना एकान्त पाप है। ऐसा भीखणजी और जीतमलजी कहते हैं। इसी सम्प्रदाय के साधु कुन्दनमलजी ने अभी एक चर्चा बनाई है। उसमें उन्होंने परोपकारादि सभी कार्यो को एकान्त पाप में बताया है। उस चर्चा में राजनीति, गृहस्थनीति, धर्मनीति और सुपात्र कुपात्र की भी व्याख्या की गई है। हम यहां पाठकों के समालोचनार्थ उस चर्चा को नीचे लिख देते हैं(1) "अंधे लूले लँगड़े भूखे प्यासे दुःखी गरीब जीवों की रक्षा 319 1
SR No.006168
Book TitleSupatra Kupatra Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherAadinath Jain S M Sangh
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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