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(10) आत्म-कल्याण में मंदिर मूर्ति मुख्य साधन हैं, यथारुचि सेवा पूजा करना जैनों का कर्त्तव्य है चाहे द्रव्य पूजा करें या भाव पूजा पर पूज्य पुरुषों की पूजा अवश्य करें।
( 11 ) जहां तक जैन- समाज, मन्दिर मूर्तियों का भाव भक्ति से उपासक था वहां तक आपस में प्रेम, स्नेह, ऐक्यता, संघ सत्ता और जाति संगठन तथा मान, प्रतिष्ठा, तन, मन एवं धन से समृद्ध था ।
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(12) आज एक पक्ष जो जिन तीर्थङ्करों का सायं प्रातः नाम लेता है, उन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तियों की भरपेट निन्दा करता है, और दूसरा पक्ष उनके मूर्ति की पूजा करता है । परन्तु पूर्ण आशातना नहीं टालने से आज समाज अधः स्थिति को पहुँच रहा है।
(13) आज इतिहास में जो जैनियों को गौरव उपलब्ध होता है उसका एक मात्र कारण उनके मन्दिरों का निर्माण एवं उदारता ही है । मन्दिरों को मोक्ष का साधन समझ असंख्य द्रव्य इस कार्य में व्यय कर भारत के रमणीय पहाड़ों और विशाल दुर्गों में जिन मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई है।
( 14 ) जैन मन्दिर मूर्तियों की सेवा पूजा करने वाले बीमारावस्था में यदि मन्दिर नहीं भी जा सकते तो भी उनका परिणाम यह ही रहेगा कि आज मैं भगवान का दर्शन नहीं कर सका यदि ऐसी हालत में उसका देहान्त भी हो जाए तो उसकी गति अवश्य शुभ होती है। देखा मन्दिरों का प्रभाव !
अन्त में श्रीमती शासन देवी से हमारी यही नम्र प्रार्थना है कि वे हम सबको सद् बुद्धि दें, जिससे पूर्व समय के तुल्य ही हम सब संगठित हो, परम प्रेम के साथ शासन सेवा करने में भाग्यशाली बनें।
ओसवाल जाति का संक्षिप्त इतिहास वीर सं. 70 में ओसीया के नागरिकों को मांस, शराब आदि छुड़वाकर आचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी ने ओसवाल वंश की स्थापना की। 345000 लोगों को नवकार महामंत्र की शिक्षा दीक्षा देकर जैन बनाया। उसी वर्ष उन ओसवालों ने जैन मंदिर का ओसीया में निर्माण करवाया था। इसलिए सभी ओसवाल मंदिरमार्गी हैं। - पार्श्वनाथ परंपरा के इतिहास में से साभार पूजा की ढाल में में फरमाते हैं।
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