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आरम्भ से डरने वाले लोगों के पूज्यजी आदि स्वयं बड़े बड़े शहरों में चातुर्मास करते हैं । उनके दर्शनार्थी हजारों भावुक आते हैं। उनके लिये चन्दा कर चौका खोला जाता है।
रसोईये प्रायः विधर्मी ही होते हैं, नीलण, फूलण और कीड़ों वाले छाणे (कण्डे) और लकड़ियाँ जलाते हैं। पर्युषणों में खास धर्माऽऽराधन के दिनों में बड़ी बड़ी भट्टियाँ जलाई जाती हैं दो दो तीन तीन मण चावल पकाते हैं जिनका गरम गरम (अत्युष्ण) जल भूमि पर डाला जाता है, जिससे असंख्य प्राणी मरते हैं, बताइये क्या आपका यही परम पुनित अहिंसा धर्म है? हमारे यहाँ मदिरों में तो एकाध कलश ठण्डा जल और एकाध धूपबत्ती काम में ली जाती है। उसे आरम्भ 2 के नाम से पुकारते हो और घर का पता ही नहीं । यह अनूठा न्याय आपको किसने सिखाया? साधु हमेशा गुप्त तप और पारणा करते हैं पर आज तो अहिंसा के पैगम्बर तपस्या के आरम्भ में ही पत्रों द्वारा जाहिर करते हैं कि अमुक स्वामी जी ने इतने उपवास किये अमुक दिन पारणा होगा। इस सुअवसर पर सकुदुम्ब पधार कर शासन शोभा बढावें । इस पारणा पर सैंकड़ों हजारों भावुक एकत्र हो बड़ा आरम्भ समारम्भ कर स्वामी जी का माल लूट जाते हैं। इसका नाम धाम धूम है या भक्ति की ओट में आरम्भ आप है ? ऐसे अनेक कार्य हैं कि मूर्तिपूजकों से कई गुणा धाम धूम और आरम्भ करते हैं। जरा आंख खोल के देखो, आप पर भी जमाने ने कैसा प्रभाव डाला है?
प्र. - यदि मन्दिर - मूर्ति शास्त्र एवं इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है, फिर स्थानकवासी खण्डन क्यों करते हैं? क्या इतने बड़े समुदाय में कोई आत्मार्थी नहीं है कि जो उत्सूत्र भाषण कर वज्रपाप का भागी बनता है ?
उ. - यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि किसी समुदाय में आत्मार्थी है ही नहीं, पर इस सवाल का उत्तर आप ही दीजिये कि दया दान में धर्म व पुण्य, शास्त्र, इतिहास और प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध है पर तेरह पन्थी लोग इसमें पाप होने की प्ररूपणा करते हैं क्या इतने बड़े समुदाय में कोई भी आत्मार्थी नहीं है कि खुले मैदान में उत्सूत्र प्ररूपते हैं जैसे आप तेरह पन्थियों को समझते हैं वैसे ही हम आपको समझते हैं। आपने मूर्ति नहीं मानी, तेरहपंथियों ने दया दान नहीं माना, पर उत्सूत्र रूपी पाप के
माँ ने कहा ये तेरे पिता है, मान लिया ठीक ऐसे ही भ. महावीर ने कहा गाजर, (15