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प्र.
भागी दोनों समान ही हैं और स्थानकवासी व तेरहपंथियों में जो आत्मार्थी हैं वे शास्त्रों द्वारा सत्य धर्म का शोध करके असत्य का त्याग कर सत्य को स्वीकार कर ही लेते हैं ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं कि स्थानकवासी तेरहपंथी सैकड़ों साधु संवेगी दीक्षा धारण कर मूर्ति उपासक बन गये हैं । स्थानकवासी और तेरहपन्थियों को आपने समान कैसे कह दिया ? कारण तेरह पंथियों का मत तो निर्दय एवं निकृष्ट है कि वे जीव बचाने में या उनके साधुओं के सिवाय किसी को भी दान देने में पाप बतलाते हैं । इनका मत तो वि. सं. 1815 में भीखम स्वामी ने निकाला है। उ. जैसे तेरहपन्थियों ने दया दान में पाप बतलाया वैसे स्थानकवासियों ने शास्त्रोक्त मूर्ति पूजा में पाप बतलाया, जैसे तेरहपन्थी. समाज को वि. सम्वत् 1815 में भीखमजी ने निकाला वैसे ही स्थानकवासी मत को भी वि. सम्वत् 1708 में लवजीस्वामी ने निकाला । बतलाईये उत्सूत्र प्ररूपणा में स्थानकवासी और तेरहपंथियों में क्या असमानता है? हां! दया दान के विषय में हम और आप (स्थानकवासी) एक ही हैं ।
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प्र. • जब आप मूर्तिपूजा अनादि बतलाते हो तब दूसरे लोग उनका खण्डन क्यों करते हैं?
उ. - जो विद्वान् शास्त्रज्ञ हैं वे न तो मूर्ति का खण्डन करते थे और न मंडन करते हैं। बल्कि जिन मूर्ति पूजक आचार्यों ने बहुत से राजा, महाराजा व क्षत्रियादि अजैनों को जैन ओसवालादि बनाया, उनका महान उपकार समझते हैं और जो अल्पज्ञ या जैन शास्त्रों के अज्ञाता हैं वे अपनी नामवरी के लिये या भद्रिक जनता को अपने जाल में फंसाए रखने को यदि मूर्ति का खण्डन करते हैं तो उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है? कुछ नहीं । उनके कहने मात्र से मूर्ति मानने वालों पर तो क्या पर नहीं मानने वालों पर भी असर नहीं होता है। वे अपने ग्राम के सिवाय बाहर तीर्थों पर जाते हैं। वहां निःशंक सेवा पूजा करते हैं वहाँ उनको बड़ा भारी आनन्द भी आता है । क्यों कि मंदिर व प्रतिमा तो प्रमुख आलंबन हैं।
फिर भी उन लोगों के खण्डन से हमको कोई नुकसान नहीं पर एक किस्म से लाभ ही हुआ है, ज्यों ज्यों वे कुयुक्तियों और असभ्यता पूर्वक मूला, आलु, कांदा, लहसन में अनंत जीव हैं, मान लो, छोड़ दो। नो आर्ग्युमेन्ट । (16