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________________ ५६ ७. पोराणयकम्मरयं चरिया रित्तं करेदि जदमाणो । णवकम्मं ण य बज्झदि चरित्तविणओत्ति णादव्वो ।। (मू० ५८७) यतनाचार पूर्वक आचरण करता हुआ ज्ञानी चरित्र से पूर्व संचित कर्मरूपी रज को बाहर निकालता है और नवीन कर्मों का बंध नहीं करता, यही चारित्रविनय है, ऐसा जानना । ८. भत्तो तवोधियम्हि य तवम्हि अहीलणा य सेसाणं । एसो तवम्हि विणओ जहुत्तचरित्तसाहुस्स । । महावीर वाणी (मू० ३७१) तप में जो अधिक हैं उनकी भक्ति, तपों की भक्ति तथा जो अन्य हैं उनकी अवहेलना न करना यह यथोक्त चारित्र का पालन करने वाले मुनियों का तप में विनय है। ६. अवणयदि तवेण तमं उवणयदि मोक्खमग्गमप्पाणं । तवविणयणियमिदमदी सो तवविणओत्ति णादव्वो ।। (मू० ५८८) जिसकी तप-विनय में बुद्धि दृढ़ है, ऐसा पुरुष तप से पापरूपी अंधकार को हटाता है और आत्मा को मोक्ष मार्ग की प्राप्ति कराता है, यही तप विनय है, ऐसा जानना । १०. तह्मा सव्वपयत्ते विणयत्तं मा कदाइ छंडिज्जो । अप्पसुदो वि य पुरिसो खवेदि कम्माणि विणएण । । (मू० ५८६) इसलिए संयमी पुरुष सब प्रयत्नों से ( तप के प्रति) विनयभाव कभी न छोड़े । थोड़ा श्रुत जानने वाला पुरुष भी इस (तप) विनय से कर्मों का नाश कर देता है। ११. पंचमहव्वदगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणी य । किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणाइ सदा ऊणरादिणिओ ।। (मू० ५६० ) पाँच महाव्रतों के आचरण में लीन, धर्म में उत्साहवाला, उद्यमी, मान-रहित, दीक्षा में लघु ऐसा संयमी निर्जरार्थी होकर रत्नाधिकों का कृतिकर्म करता है, यह र- विनय है। उपचार ३. विनय : धर्म का मूल १. विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा । विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ।।' (मू० ३८५) जो विनय से रहित है उसकी सारी शिक्षा निरर्थक होती है। शिक्षा का फल विनय है और विनय का फल है सम्पूर्ण कल्याण । १. भग० आ०, १२८
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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