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________________ ७. विनय २. विनय के पाँच भेद १. दंसणणाणचरित्ते तवविणओ ओवचारिओ चेव । मोक्खमि एस विणओ पंचविहो होदि णादव्यो ।। (मू० ५८४) दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपोविनय, औपचारिक विनय-इस तरह मोक्षविनय के पाँच भेद हैं, ऐसा जानना चाहिए। २. उवगृहणादिआ पुबुत्ता तह भत्तिआदिआ य गुणा । संकादिवज्जणं पि य दंसणविणओ समासेण ।। (मू० ३६५) उपगूहन आदि पूर्वोक्त गुण, पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि और शंकादि दोषों का वर्जन-यह संक्षेप में दर्शन-विनय है। ३. जे अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे। ते तह रोचेदि णरो दंसणविणओ हवदि एसो।। (मू० ३६६) जिनेश्वर देव ने श्रुतज्ञान में जो पदार्थ और पर्याय कहे हैं, उसमें उसी प्रकार रुचि करना दर्शन-विनय होता है। ४. णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि। __णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।। (मू० ३६८) जो ज्ञान को सीखता है, ज्ञान का ही चिंतन करता है, दूसरे को भी ज्ञान का ही उपदेश करता है, और ज्ञान से ही न्याय प्रवृत्ति करता है वह जीव ज्ञान-विनय वाला होता है। ५. णाणि गच्छदि णाण वंचदि णाणी णवं च णादियदि। णाणेण कुणदि चरणं तह्मा णाणे हवे विणओ।। (मू० ५८६) ज्ञानी मोक्ष को जानता है, ज्ञानी पाप को छोड़ता है, ज्ञानी नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करता, ज्ञानी ज्ञान से चारित्र को अंगीकार करता है इसलिए ज्ञान में विनय करना चाहिए। ६. इंदियकसायपणिहाणंपि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।। (मू० ३६६) इन्द्रियों के व्यापार को रोकना, क्रोधादि कषायों के प्रचार को रोकना और समिति-गुप्ति-यह सब संक्षेप से चारित्र-विनय है, ऐसा जानना।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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