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________________ ४८ महावीर वाणी ११. जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगभई । - काम-भोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ।। (उ० ५ : ७) .. "मैं तो अनेक लोगों के साथ रहूँगा"-मूर्ख मनुष्य इसी प्रकार धृष्टता भरी बातें कहा करता है। ऐसा मनुष्य कामभागों के अनुराग से इस लोक और परलोक में क्लेश की प्राप्ति करता है। १२. जे इह सायागुणा णरा, अज्झोववण्णा कामेहि मुच्छिया। किवणेण समं पगब्भिया, ण वि जाणंति समाहिमाहियं ।। (सू० १, २ (३) : ४) इस संसार में जो मनुष्य सुखशील हैं, समृद्धि, रस और सुख में गृद्ध हैं, कामभोग में मूर्छित हैं, इन्द्रिय-लम्पट पुरुषों की तरह धृष्ट हैं, वे वीतराग पुरुषों के बताये समाधिमार्ग को नहीं जानते। १३. वाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, णाईवचए अबले विसीयइ ।। एवं कामेसणाविऊ, अज्ज सुए पयहेज्ज संथव । कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्ध कण्हुई।। (सू० १, २ (३) : ५, ६) जिस तरह वाहक द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ अर्थात् त्रास देकर हाँका जाता हुआ बैल थक जाता है और मारे जाने पर भी अल्प बल के कारण आगे नहीं चलता और रास्ते में कष्ट पाता है, उसी तरह क्षीण मनोबल वाला अविवेकी पुरुष सद्बोध पाने पर भी कामभोगरूपी कीचड़ से नहीं निकल सकता। आज या कल इन भोगों को छोडूंगा, वह केवल यही सोचा करता है। सुख चाहने वाला पुरुष काम भोगों की कामना न करे और प्राप्त हुए भोगों को भी अप्राप्त हुआ करे-त्यागे। १४. मा पच्छ असाहया भवे अच्चेही अणसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयई से थणई परिदेवई बहु ।। (सू० १, २ (३) : ७) कहीं परभव में दुर्गति न हो इस विचार से आत्मा को विषय-संग से दूर करो और उसे अंकुश में रखो । असाधु कर्म से तीव्र दुर्गति में गया हुआ जीव अत्यन्त शोक करता है, आक्रन्दन करता है, विलाप करता है। १५. इह जीवियमेव पासहा तरुण एव वाससयस्य तुट्टई। इत्तरवासं व बुज्झहा णिद्ध णरा कामेसु मुच्छिया।। (सू० १, २ (३) : ८)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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