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________________ ६. कामभोग ४६ संसार में और पदार्थ की तो बात ही क्या, इस अपने जीवन को ही देखो। यह पल-पल क्षीण हो रहा है। कभी आयु तरुणावस्था में पूरी हो जाती है और अधिक हुआ तो सौ वर्ष के छोटे-से काल में । यहाँ कितना क्षणिक निवास है । हे जीव ! समझो । कितना आश्चर्य है कि आयुष्य का भरोसा न होते हुए भी विषयासक्त पुरुष कामों में मूर्च्छित रहते हैं । १६. ण य संखयमाहु जीवियं तह वि य बालजणो पगब्भई । पच्चुप्पणेण कारियं के दठ्ठे परलोगमागए ? । । (सू० १, २ (३) : १०) टूटा हुआ आयु नहीं जोड़ा जा सकता - ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है; तो भी मूर्ख लोग धृष्टतापूर्वक पाप करते रहते हैं और कहते हैं, "हमें तो वर्तमान से ही मतलब है । परलोक कौन देखकर आया है ?" १७. अदक्खुव ! दक्खुवाहियं सद्दहसू अदक्खुदंसणा । हंदि ! हु सुणिरुद्वदंसणे ! मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा ।। (सू० १, २ (३) : ११) हे नहीं देखने वाले पुरुषो ! त्रिभुवन को देखने वाले ज्ञानी पुरुषों के वचनों पर श्रद्धा करो। मोहनीय कर्म के उदय से अवरुद्ध दर्शन-शक्ति वाले अंध पुरुषो ! सर्वज्ञों के वचनों को ग्रहण करो । १८. पुरिसोम पावकम्मुणा पलियंतं मणुयाण जीवियं । सण्णा इह काममुच्छिया मोहं जंति णरा अंसंवुडा ।। (सू० १, २ (१) : १०) हे पुरुष ! पाप कर्मों से निवृत्त हो जा। यह मनुष्य जीवन शीघ्रता से दौड़ा जा रहा है। भोरूपी कीचड़ में फँसा हुआ और कामभोगों में मूर्च्छित अजितेन्द्रिय मनुष्य हिता - हित विवेक को खोकर मोहग्रस्त होता है। 1 २. मृगतृष्णा दुक्खे | १. कच्छु कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे मुहाभिमाणं मेहुण आदीहिं कुणहि तहा । । (भग० आ० १२५२) जैसे कच्छु रोग को नखों से खुजलाने वाला मनुष्य दुःख में सुख का अभिमान करता है, वैसे ही मैथुन आदि दुःखों में प्राणी सुख का अभिमान करता है ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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