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________________ ४४ . . महावीर वाणी ३. गंतूण णंदणवणं अभयं छंडिय विसं जहा पियइ। ___माणुसभवे वि छड्डिय धम्मं भोगे भिलसदि तहा ।। (भग० आ० १८३२) जो व्यक्ति दुर्लभ मनुष्य-भव में भी धर्म को छोड़कर भोगों की चाह करता है, वह वैसा ही है जैसे वह जो नंदन वन में जाकर भी अमृत को छोड़ विषपान करे। ४. हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कज्जेसु।। हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणो जदो धम्मो।। (द्वा० अ० ४०६) चूँकि हिंसा पाप कही गई है और धर्म को दयाप्रधान कहा गया है, इसलिए देव के निमित्त अथवा गुरु के कार्य के निमित्त हिंसा करना शुभ नहीं है। ५. देव-गुरूण णिमित्तं हिंसारम्भो वि होदि जदि धम्मो। हिंसा-रहिओ धम्मो इदि जिण-वयणं हवे अलियं ।। (द्वा० अ० ४०७) यदि देव और गुरु के निमित्त हिंसा का आरम्भ भी धर्म हो तो 'धर्म हिंसा रहित है' ऐसा जिमेन्द्र वचन असत्य सिद्ध होगा। ६. मरणभयभीरूआणं अभयं जो देदि सव्वजीवाणं। तं दाणाणवि दाणं तं पुण जोगेसु मूलजोगंपि।। (मू० ६३६) मरण-भय से भयभीत सब जीवों को जो अभयदान देता है वही दान सब दानों में उत्तम है और वह दान सब आचरणों में प्रधान आचरण है। ७. आरंभे पाणिवहो पाणिवहे होदि अप्पणो हु बहो। अप्पा ण हु हंतव्वो पाणिवहो तेण मोत्तव्यो।। (मू० ६२१) आरम्भ में जीवघात होता है । जीवघात होने से आत्मघात होता है। चूंकि आत्मघात करना ठीक नहीं, अतः आरम्भ-हिंसा का त्याग करना ही उचित है। ३. आत्मार्थ : परार्थ १. आतं परं च जाणेज्जा सव्वभावेण सव्वधा। आयटुं च परठं च पियं जाणे तहेव य।। (इसि० ३५ : १२) साधक 'स्व' और 'पर' का सर्वभाव से सर्वथा परिज्ञान करे, साथ ही आत्मार्थ और परार्थ को भी जाने। २. सए गेहे पलित्तम्मि किं धावसि परातकं ?। सयं गेहं णिरित्ताणं ततो गच्छे परातकं।। (इसि० ३५ : १३) अपना घर जल रहा है तब दूसरे के घर की ओर क्यों दौड़ रहे हो? स्वयं के घर का बचाव कर लेने के बाद दूसरे के घर की ओर जाओ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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