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________________ ५. धर्म ४५ ३. आतठे जागरो होही नो परवाहि धारए। आतट्ठो हावए तस्स जो परट्ठाहि धारए।। (इसि० ३५ : १४) आत्मार्थ के लिए जागृत बनो। परार्थ को धारण न करो। जो परार्थ को अपनाता है, वह आत्मार्थ को खो बैठता है। ४. जइ परो पडिसेवेज्ज पावियं पडिसेवणं। तुज्झ मोणं करेंतस्स के अढे परिहायति ?|| (इसि० ३५ : १५) यदि दूसरा कोई पाप सेवन कर रहा है तो तुझे मौन में क्या हानि होती है। ५. आतट्ठो णिज्जरायंतो परट्ठो कम्मबंधणं। अत्ता समाहिकरणं अप्पणो य परस्स य।। (इसि० ३५ : १६) आत्मार्थ निर्जरा का हेतु है और परार्थ कर्म-बन्धन का हेतु । आत्मा ही स्व और पर के लिए समाधि का करने वाला है। ६. अण्णातयम्मि अट्टालकम्मि किं जग्गिएण वीरस्स?। णियगम्मि जग्गियव्वं इमो हु बहुचोरतो गामो।(इसि० ३५ : १७) अज्ञात अट्टालिका में वीर के जागने से क्या होगा ? स्वयं को जागना होगा। क्योंकि यह ग्राम बहुत चोरों का है। ७. जग्गाहि मा सुवाहि माते धम्मचरणे पमत्तस्स । काहिंति बहुं चोरा संजमजोगे हिडाकम्मं ।। (इसि० ३५ : १८) जाग्रत रहो । सोओ मत । धर्माचरण में प्रमत्त होने पर तुम्हारे संयम-योग को बहुत से चोर लूट लेंगे। ८. जागरह णरा णिच्चं जागरमाणस्स जागरति सुत्तं। - जे सुवति न से सुहिते जागरमाणे सुही होति ।। (इसि० ३५ : २२) मनुष्यो ! सदा जाग्रत रहो। जाग्रत रहने वाले कि लिए सूत्र भी जाग्रत रहता है। जो सोता है वह सुख प्राप्त नहीं करता। जाग्रत रहने वाला सुखी होता है। ६. जागरंतं मुणिं वीरं दोसा वज्जेंति दूरओ। जलंतं जातवेथं वा चक्खुसा दाहभीरुणो।। (इसि० ३५ : २३) जाग्रत वीर पुरुष को दोष वैसे ही दूर से ही छोड़ देते हैं जैसे आँखों से देखते ही दाह-भीरु मनुष्य ज्वलित अग्नि को दूर से ही छोड़ देते हैं।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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