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५. धर्म
४३ १३. होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं।
णिबंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्हं । (कुन्द० अ० ७६)
जो समस्त परिग्रह को छोड़कर और सुख-दुःख देने वाले आत्म-भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रहता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है। १४. जो परिहरेदि संगं, महिलाणं णेव पस्सदे रूवं ।
कामकहादिणियत्तो णवहा बंभं हवे तस्स।। (द्वा० अ० ४०३)
जो स्त्रियों की संगति नहीं करता, उनके रूप को नहीं देखता, काम-कथादि से रहित होता है तथा जो मन, वचन, काया तथा कृत, कारित, अनुमति से ऐसा करता है, उसके ब्रह्मचर्य धर्म होता है। १५. एसो दह-प्पयारो धम्मो दह-लक्खणो हवे णियमा।
अण्णो ण हवदि धम्मो हिंसा सुहमा वि जत्थत्थि।। (द्वा० अ० ४०५)
यह दस प्रकार का धर्म ही नियम से दसलक्षणरूप धर्म है। इससे अन्य जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा हो, वह धर्म नहीं है। १६. एदे दह-प्पयारा पाव-कम्मस्स णासया भणया।
पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायव्वा।। (द्वा० अ० ४०६)
ये दस प्रकार के धर्म के भेद पाप-कर्म का नाश करने वाले और पुण्य-कर्म को उत्पन्न करने वाले कहे गए हैं, परन्तु पुण्य के प्रयोजन से इनको अंगीकार करना उचित नहीं है।
२. धर्म-स्थित १. जो धम्मत्थो जीवो सो रिउ-वग्गे वि कुणइ खम-भावं । ता पर-दव्वं वज्जइ जणणि-समं गणइ पर-दारं ।।
(द्वा० आ० ४२६) जो जीव धर्म में स्थित है वह शत्रुओं के समूह पर भी क्षमा भाव करता है, दूसरे के द्रव्य का वर्जन करता है और परस्त्री को माँ के समान समझता है। २. धुट्टिय रयणाणि जहा रयणद्दीवा हरेज्ज कट्ठाणि। माणुसभवे वि धुट्टिय धम्मं भोगे भिलसदि तहा। (भग० आ० १८३१)
जो व्यक्ति मनुष्य-भव में भी धर्म को छोड़कर भोगों की अभिलाषा करता है, वह वैसा ही है जैसा वह जो रत्नद्वीप पहुँचकर भी रत्नों को छोड़कर लकड़ियों को इकट्ठा करता है।