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________________ ४२ ६. कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं । । (कुन्द० अ० ७५) आकांक्षा भाव को दूर करके वैराग्य भावना से युक्त रहता है, उसके शौच धर्म होता है । ७. सम-संतोस- जलेणं य जो धोवदि तिव्व-लोह-मल- पुंजं । भोयण- गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं । । महावीर वाणी ( द्वा० अ० ३६७) जो समभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है, जो भोजन की गृद्धि से रहित है, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। ८. जो जीव- रक्खण-परो गमणागमणादि - सव्व- -कम्मेसु । तण-छेदं पि ण इच्छदि संजम भावो हवे तस्स ।। (द्वा० अ० ३६६ ) जीवों की रक्षा में तत्पर जो मनुष्य गमनागमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं चाहता, उसके संयम धर्म होता है । ६. इह-परलोय - सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो । विविहं काय - किलेसं तव धम्मो णिम्मल्लो तस्स ।। ( द्वा० अ० ४०० ) जो इहलोक-परलोक के सुख की अपेक्षा से रहित होता हुआ सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, तृण - कंचन, निन्दा - प्रशंसा आदि से राग-द्वेष रहित समभावी होता हुआ अनेक प्रकार के काय- कलेश करता है, उसके निर्मल तप धर्म होता है । १०. विसय-कसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण । । (कुन्द० अ० ७७) विषय और कषाय भाव का निग्रह कर, जो ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना भाता है, उसके नियम से तप धर्म होता है। ११. णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणवर्रिदेहिं । । (कुन्द० अ० ७८ ) जो समस्त द्रव्यों से मोह का त्याग कर तीन प्रकार के निर्वेद की भावना करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । १२. जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं राय-दोस- संजणयं । वसदिं ममत्त हेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स । । (द्वा० अ० ४०१ ) जो मिष्ट भोजन को छोड़ता है, राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को छोड़ता है, ममत्व के हेतु वास स्थान को छोडता है, उसके त्याग नामक धर्म होता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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