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महावीर वाणी १०. संजोग-सिद्धीय उ गोयमा फलं न हु एग-चक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समेच्चा ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा।।
(महा० नि० १ : ३६) गौतम! ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही सिद्धि-रूप फल मिलता है। एक चक्के से रथ नहीं चलता। अंधा और पंगु जंगल में मिले एवं दोनों एक-दूसरे से संयुक्त होकर नगर में प्रविष्ट हुए। ११. जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।। (मूल० ५ : ८५)
जिससे तत्त्व जाना जाय, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा की विशुद्धि हो, उसे ही जिन-शासन में ज्ञान कहा है। १२. जेण रागा से विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मित्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।। (मूल० ५ : ८६)
जिससे जीव राग से विरक्त हो, जिससे श्रेय में रक्त हो, जिससे मैत्री-भाव की वृद्धि हो, उसे ही जिन-शासन में ज्ञान कहा गया है। १३. मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण वाणा सुअस्थि रयणत्तं ।
परमत्थबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ।। (बो० पा० २३)
जिसके पास मतिज्ञानरूपी दृढ़ धनुष है, श्रुतज्ञानरूपी डोरी है, रत्नत्रयरूपी अच्छे बाण हैं और जिसने परमार्थ को निशान बनाया है, वह मोक्ष-मार्ग से नहीं चूकता।
३. संयम और तप
१. पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ। ___राईभोयणविरओ जीवो भवइ अणासओ।। (उ० ३० : २)
हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तथा रात्रि-भोजन से विरत जीव अनास्रव (नए कर्मार्जन से रहित) हो जाता है। २. पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइन्दिओ।
अगारवो य निस्सल्लो जीवो होइ अणासवो।।' (उ० ३० : ३) १. मिलावें : मू० ७४१
मणवयणदायगुत्तिंदियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स । आसवदारणिरोहे णवकम्मरयासवो ण हवे।।