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________________ ३३ . ४. दुर्लभ संयोग ४. न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं?। विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडिय माणिणो।। (उ० ६ : १०) नाना प्रकार की भाषाएँ जीव को दुर्गति से नहीं बचातीं। विद्याओं का अनुशासन (आधिपत्य) भी कहाँ से रक्षक होगा? आश्चर्य है कि अपने-आप को पण्डित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य पाप कर्म में निमग्न हैं। ५. सम्मिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू । अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए ।। (उ० ६ : २) इसलिए पण्डित पुरुष अनेक प्रकार के बंधन और नाना जाति-पथ (एकेन्द्रिय आदि जीव-योनियों) की समीक्षा कर आत्मा द्वारा सत्य की गवेषणा करे और सर्व प्राणियों के प्रति मैत्री का आचरण करे। ६. जे केइ सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सवे ते दुक्खसंभवा।। (उ० ६ : ११) जो भी मनुष्य मन, वचन, काया से सर्व प्रकार से शरीर, वर्ण और रूप में आसक्त होते हैं, वे सब अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। ७. बहिया उड्ढमादाय नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे ।। (उ० ६ : १३) आत्मिक सुख-जो इन्द्रिय सुख से परे और ऊँचा है-उसकी अभिलाषा करे। कभी भी बाह्य अर्थात् विषय-सुखों की कामना न करे। इस देह का पालन-पोषण पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही करे। ८. णाणुज्जोएण विणा जो इच्छदि मोक्खमग्गमुवगंतुं। गंतुं कडिल्लमिच्छदि अंधलओ अंधयारम्मि ।। (भग० आ० ७७१) जो ज्ञान के प्रकाश के बिना मोक्ष-मार्ग पर चलना चाहता है, वह उस अंधे की तरह है, जो अंधकार में दुर्गम जंगल में चलने की इच्छा करता है। ६. जदि पडदि दीवहत्थो अवडे किं कुणदि तस्स सो दीवो। जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि किं तस्स सिक्खफलं।। (मूल० १० : १५) जिसके हाथ में दीपक है वही पुरुष यदि कुएँ में गिर जाय तो दीपक हाथ में लेने से क्या लाभ हुआ? इसी तरह ज्ञान प्राप्त करने पर भी मनुष्य यदि अन्याय का आचरण करे तो उसके शास्त्र पढ़ने से क्या लाभ ?
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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