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________________ महावीर वाणी कदाचित् धर्म को सुनकर उसमें श्रद्धा भी प्राप्त हो जाय तो धर्म में पुरुषार्थ होना और भी दुर्लभ होता है। धर्म में रुचि होने पर भी बहुत से लोग धर्म को स्वीकार नहीं करते। ३२ ११. माणुसत्तंमि आयाओ जो धम्मं सोच्च सद्दहे । तवस्सी वीरियं लधुं संवुडे निधुणे रयं । । ( उ०३ : ११ ) C. मनुष्य जन्म पाकर जो धर्म को सुनता है और श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार पुरुषार्थ करता है वह तपस्वी नये कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्मरूपी रज को धुन डालता है। १२. सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई | निव्वाणं परमं जाइ घयसित्त व्व पावए । । (उ०३ : १२) ऋजु आत्मा की ही शुद्धि होती है। धर्म शुद्ध आत्मा में ही ठहरता है। जिस तरह घी से सींची हुई निर्धूम अग्नि दिव्य प्रकाश को प्राप्त होती है, उसी तरह शुद्ध आत्मा परम निर्वाण को प्राप्त होता है। २. ज्ञान और क्रिया १. जावन्त विज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा संसारंमि अनंतए । । ( उ०६ : १) जो भी विद्याहीन -तत्त्व को नहीं जानने वाले पुरुष हैं, वे सब दुःखों के पात्र होते हैं। इस अनन्त संसार में मूढ़ मनुष्य बार-बार पीड़ित होते हैं । २. इहमेगे उ मन्नंति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई ।। ( उ०६ : ८) इस संसार में कई ऐसा मानते हैं कि पापों का त्याग किए बिना ही केवल आचार को जान लेने मात्र से जीव सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। ३. भणन्ता अकरेन्ता य बन्धमोक्खपइण्णिणो । वायाविरियमेत्तेण समासासेन्ति अप्पयं । । ( उ० ६ : १) ज्ञान से ही मोक्ष बतलाने वाले, पर किसी प्रकार की क्रिया का अनुष्ठान न करने वाले, ऐसे बन्ध-मोक्ष के व्यवस्थावादी लोग, केवल वचनों की वीरतामात्र से अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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