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४. दुर्लभ संयोग
जो जीव पाँच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, चार कषायों से रहित, जितेन्द्रिय तथा तीन प्रकार के गौरव और तीन प्रकार के शल्य से रहित होता है, वह अनास्रव हो जाता है। ३. जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे ।
उस्सिचप्पाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे । भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ।। (उ० ३० : ५, ६)
जिस तरह जल आने के मार्गों को रोक देने पर बड़ा तालाब पानी के उलीचे जाने और सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, उसी तरह आस्रव-पाप-कर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने वाले संयमी पुरुष के करोड़ों भवों के संचित कर्म तप के द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं। ४. तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं ।।
(भ० आ० १८५४) तालाब में स्रोत से जल प्रवेश करते रहने पर जैसे वह तालाब पूरा नहीं सूख पाता वैसे ही जिन वचन के अनुसार संवररहित मनुष्य को केवल तप से मोक्ष नहीं होता।
५. संजमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं । .. सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे जीवो।। (मू०५ : ५५)
संयम और योग से युक्त जो पुरुष अनेक (बारह) भेदरूप तप में प्रवृत्ति करता है, वह विपुल कर्मों की निर्जरा करता है।
६. जह धाऊ धम्मंतो सुज्झदि सो अग्गिणा दु संतत्तो। ... तवसा तधा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणयं वा।।' (मूल०५:५६)
जैसे सुवर्ण धमाने और अग्नि द्वारा तपाने पर मलरहित होकर शुद्ध हो जाता है, उसी तरह यह जीव भी तपरूपी अग्नि से तपाया जाने पर कर्मों से रहित होकर शुद्ध हो जाता है। ७. णाणवरमारुदजुदो सीलवरसमाधिसंजमुज्जलिदो।
दहइ तवो भववीयं तणकट्ठादी जहा अग्गी।। (मू० ७४७)
ज्ञानरूपी प्रचंड पवन से युक्त, शील, उत्तम समाधि और संयम से प्रज्वलित तप संसार के कारणभूत कर्मों को वैसे ही भस्म कर देता है, जैसे अग्नि तृण, काष्ठ आदि को।
१. मू० २४३।