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________________ महावीर वाणी जीव प्राप्त हुए विषयों को जिस राग, द्वेष या मोहरूप भाव से जानता-देखता है, उसी भाव से रंग जाता है और फिर उसी भाव से पौद्गलिक कर्म बंधते हैं। १४. जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिवद्धा। काले विणुज्जमाणा सुहदुक्खं दिति भुंजंति।। (पंचा० ६७) इस तरह जीव और पुद्गल-स्कंध परस्पर में सघन रूप में बद्ध होकर रहते हैं। उदयकाल आने पर जब वे जुदा होने लगते हैं तो पुद्गल-कर्म सुख-दुःख देते हैं और जीव उनको भोगता है। १५. एवं कत्ता भोत्ता होज्जं अप्पा सगेहिं कम्मेहिं। हिंडदि पारमपारं संसारं मोहसंछण्णो।। (पंचा० ६६) इस प्रकार यह जीव अपने कर्मों के द्वारा कर्ता-भोक्ता होता हुआ मोह में डूबकर अनन्त संसार में भ्रमण करता है। १६. उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो। णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो।। (पंचा० ७०) वही धीरात्मा जीव जिन भगवान के द्वारा कहे हुए मार्ग को अपनाकर मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय करके, सम्यग्ज्ञान का अनुसरण करनेवाले मार्ग पर चलता हुआ मोक्षनगर को जाता है। १७. कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो। अभुजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झइ।। (मू० ८१) जो सुखाकांक्षी होता है, राग-द्वेषादि से मलिन और काम-भोगों में मूच्छित होता है, वह भोगों को न भोगता हुआ भी परिणामों के कारण कर्मों से बँध जाता है। १८. णेहो उप्पिदगत्तस्स रेणुओ लग्गदे जधा अंगे। तह रागदोससिणिहोलिदस्स कम्मं मुणेयव्वं ।। (मू० २३६) जैसे स्नेह से स्निग्ध शरीर के रेणु चिपट जाती है, वैसे ही राग-द्वेषरूपी स्नेह से भीगी हुई आत्मा को कर्मपुद्गलों का बंधन होता है। १६. रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो। एसो जिणेवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ।। (मू० २४७) रागी जीव कर्मों का बंधन करता है। वैराग्ययुक्त पुरुष कर्मों से मुक्त होता है। यही उपदेश बंध-मोक्ष के विषय में जिनेन्द्रदेव ने संक्षेप में दिया है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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