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३. आत्मा : बंध और मोक्ष
८. कम्मं वेदयमाणो जीवो भावं करेदि जारिसयं।
सो तस्स तेण कत्ता हवदि त्ति य सासणे. पढिदं ।। (पंचा० २७)
कर्म का अनुभव करता हुआ जीव जैसे भाव को करता है, वह उसके द्वारा उस भाव का कर्ता होता है, ऐसा जैन शासन में कहा है। ६. ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो।
सुहमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविधेहिं।। (पंचा० ६४)
यह लोक सब जगह अनेक प्रकार के अनन्तानन्त सूक्ष्म और स्थूल पुद्गल-स्कन्धों से ठसाठस भरा हुआ है। १०. अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावहिं।
गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।। (पंचा० ६५)
जीव अपने रागादिरूप भावों को करता है। जब जहाँ वह इन भावों को करता है, उन भावों का निमित्त पाकर उसी समय वहीं स्थित कर्म-योग्य पुदगल जीव के प्रदेशों में परस्पर एक क्षेत्र अवगाहरूप से दूध-पानी की तरह मिलकर कर्मरूप हो जाते हैं। ११. रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि।
दव्वाणि गुणे य जधा तध बंधो तेण जाणीहि ।।(प्र० सा० २:८२)
आत्मा रूप, स्पर्श आदि गुणवाला नहीं है, किन्तु जैसे वह रूप आदि गुणवाले पुदगल द्रव्यों को और उनके रूपादि गुणों को जानता-देखता है, वैसे ही पुद्गल द्रव्य के साथ आत्मा का बन्ध जानो। . १२. उवओगमओ जीवो मज्झदि रज्जेदि वा पदस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो।।
(प्र० सा० २:८२) जीव उपयोगमय है। वह अनेक प्रकार के इष्ट-अनिष्ट विषयों को पाकर उनमें मोह करता है-आसक्ति करता है अथवा द्वेष करता है। वह उन राग, द्वेष और मोह के द्वारा बन्ध को प्राप्त होता है। १३. भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदंए विसए। रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्मत्ति उवएसो।।
(प्र०सा० २:८४)