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________________ ३. आत्मा : बंध और मोक्ष ६. बन्धन और आत्मबोध १. अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो । संसारहेउं च वयन्ति बन्धं । । ( उ० १४ : १६ ग, घ ) यह निश्चय है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं, और यह बंधन ही संसार का हेतु है - ऐसा कहा है। २. अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू अप्प मे नन्दणं वणं । । २५ ( उ० २० : ३६) (मन में चिंतन कर - ) "मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और यही कूटशाल्मली वृक्ष । मेरी आत्मा ही कामदुधा (इच्छानुसार दूध देने वाली ) धेनु है और आत्मा ही नंदन वन । " ३. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठियसुपट्टिओ ।। ( उ० २० : ३७) "मेरी आत्मा ही दुःख और सुख की कर्त्ता - उनको उत्पन्न करने वाली है और वही दुःख और सुख की विकर्त्ता-क्षय करने वाली है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत्त आत्मा शत्रु ।" ४. न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ । जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।। ( उ०२० : ४८ क, ख ) अपना दुराचार मनुष्य का जो अनिष्ट करता है, वैसा अनिष्ट कण्ठ-छेदन करने वाला शत्रु भी नहीं करता । ५. पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं किं वहिया मित्तमिच्छसि ? (आ० १,३ (३) : ६२) हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है। बाहर से मित्र पाने की इच्छा क्यों करता है ? ६. से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे । बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव ।। (आ० १,५ (२) : ३६) मैंने सुना है और अनुभव भी किया है कि बंधन से मुक्ति आन्तरिक गुणों से होती है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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