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________________ १८ ७. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं || (भा० पा० ६४ ) जीव को रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, अव्यक्त, चैतन्य गुण से युक्त, शब्द-रहित, इन्द्रियों से अगोचर और अनियत आकार वाला जानो । ८. उत्तम-गुणाण धामं सव्व - दव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परम- तच्चं जीव जाणेह णिच्छयदो || ( द्वा० अ० २०४ ) जीव ज्ञान आदि उत्तम गुणों का धाम है, चैतन्य स्वरूप होने से सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और आराध्य होने से सब तत्त्वों में परम तत्त्व है, यह निश्चयपूर्वक जानो । ६. अंतर - तच्चं जीवो बाहिर - तच्चं हवंति सेसाणि । णाण-विंहीणं दव्व हियाहियं णेय जाणेदि ।। महावीर वाणी (द्वा० अ० २०५) जीव अंतरतत्त्व है, अवशेष सारे बाह्यतत्त्व हैं। वे द्रव्य ज्ञानविहीन होने से हिताहित को नहीं जानते । १०. एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिंदियमहत्थं । धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं । । (प्र० सा० २ : १००) मैं आत्मा को ज्ञानप्रमाण, दर्शनयुक्त, अतीन्द्रिय, महातत्त्व, ध्रुव, अचल, अनालम्ब और शुद्ध मानता हूं। २. आत्मत्रय परमंतरबाहिरो हु देहीणं । १. तिपयारो सो अप्पा तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा | (मो० पा० ४) शरीरधारियों की आत्मा तीन प्रकार की होती है - परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा । बहिरात्मा को त्याग कर अन्तरात्मा के द्वारा परमात्मा का ध्यान किया जाता है। २. अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हू अप्पसंकप्पो । कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।। (मो० पा० ५) इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं (इन्द्रियों को ही आत्मा मानने वाला प्राणी बहिरात्मा है ) । आत्मा में ही आत्मा का संकल्प करने वाला अन्तरात्मा है। कर्म-कलंक से विमुक्त आत्मा परमात्मा है । उसे ही देव कहा है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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