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आत्मा : बंध और मोक्ष
१. आत्मा
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१. जे आया से विण्णाया जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया तं पडुच्च पडिसंखाए।।
(आ० १, ५ (५) : १०४) जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है। २. सव्वे सरा णियद॒ति
तक्का जत्थ ण विज्जइ मई तत्थ ण गाहिया।
(आ० १, ५ (६) : १२३-२५) आत्मा का वर्णन करते हुए सब शब्द समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की गति नहीं है, न बुद्धि ही उसे पूरा ग्रहण कर पाती है। ३. से ण दीहे ण हस्से ___ण वट्टे ण तंसे ण च उरंसे ण परिमण्डले। (आ० १, ५ (६) : १२७)
न वह दीर्घ है, न हस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चौरस है और न मंडलाकार ही है। ४. ण इत्थी ण पुरिसे ण अण्णहा। (आ० १, ५ (६) : १३५)
आत्मा न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक। ५. से ण सद्दे ण रूवे ण गंधे ण रसे ण फासे इच्चेताव।
(आ० १, ५ (६) : १४०) आत्मा न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है और न स्पर्श है। ६. अरूवी सत्ता । अपयस्स पयं णत्थि। (आ० १, ५ (६) : १३८-३६)
आत्मा अरूपी सत्ता है। उसको कहने के लिए कोई शब्द नहीं है (वह वास्तव में अवाच्य है)।