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३. आत्मा : बंध और मोक्ष
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३. मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व-कसाएण सुठु आविट्ठो।
जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ।। (द्वा० अ० १६३)
जिसकी आत्मा मिथ्यात्व में परिणमन करती है, जो तीव्र कषाय से अत्यन्त आविष्ट है और जो जीव और देह को एक मानता है, वह बहिरात्मा है। ४. जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं । णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ।। (द्वा० अ० १६४)
जो जीव जिन-वचन में कुशल हैं, जीव और शरीर के भेद को जानते हैं और जिन्होंने आठ दुष्ट मदों' को जीत लिया है वे अन्तरात्मा हैं। (साधना के तारतम्य से) वे तीन प्रकार के होते हैं। ५. स-सरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय-सयलत्था।
णाण-सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्ख-संपत्ता ।। (द्वा० अ० १६८)
जिन्होंने केवलज्ञान से सकल पदार्थों को जान लिया है, वे सदेह अर्हत एक प्रकार के परमात्मा हैं। और, जिन्हें सर्वोत्तम सुख प्राप्त हो गया है तथा ज्ञान ही जिनका शरीर है, वे दूसरे देहरहित सिद्ध परमात्मा हैं। ६. मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा।
परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो।। (मो० पा० ६)
सिद्ध परमात्मा मैल से रहित है, शरीर से रहित है, इन्द्रियों से रहित है, केवल ज्ञानमय है, विशुद्ध आत्मा है, परमपद में स्थित है, परम जिन हैं, मोक्ष को देने वाला है और शाश्वत है। ७. आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा उवइठं जिणवरिंदेहिं।। (मो० पा० ७)
अन्तरात्मा को अपनाकर और मन, वचन, काया से बहिरात्मा को छोड़कर परमात्मा का ध्यान करो, ऐसा जितेन्द्र देव ने कहा है। ८. परमप्पय झायंतो जोई मच्चेइ मलदलोहेण।।
णादियदि णवं कम्मं णिद्दिढं जिणवरिंदेहिं।। (मो० पा० ४८)
परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी कर्मरूपी महामल के ढेर से मुक्त हो जाता है तथा नये कर्मों को ग्रहण नहीं करता, ऐसा जिनवर देव ने कहा है। १. जाति, कुल, बल, रूप तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य-इनके सम्बन्ध से मद आठ हैं। २. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। देखिए द्वा० अनु०, १६५-६७