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२. प्रशस्त यज्ञ और स्नान
१. कहं चरे ? भिक्खु ! वयं जमायो ? पावाइ कम्माइ अक्खाहि णे संजय! जक्खपूइया ! कहं सुजट्ठे
महावीर वाणी
पणोल्लयामो । कुसला वयन्ति । ।
( उ०१२ : ४०)
"हे भिक्षो ! हम किस प्रकार प्राचरण करें, किस प्रकार यज्ञ करें, जिससे पापकर्मों का उन्मूलन कर सकें ? यक्ष-पूजित संयत ! आप हमें कहें- कुशल पुरुष सु-इष्ट ( श्रेष्ठ यज्ञ) किसे कहते हैं ।"
२. छज्जीवकाए असमारभन्ता मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गहं इत्थिओ माणमायं एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता । ।
( उ० १२ : ४१ ) (विशुद्ध यज्ञ की कामना करनेवाले) छः प्रकार के जीवकाय का समारम्भ- हिंसा न करते हुए, झूठ और चोरी का सेवन न करते हुए, परिग्रह, स्त्रियाँ और मान-माया का परित्याग करते हुए दमितेन्द्रिय होकर विचरें ।
३. सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं इह जीवियं अणवकखमाणो । वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो महाजयं जयई जन्नसट्टं । ।
( उ० १२ : ४२ )
“जो पाँच संवरो से सुसंवृत है, जो असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो काया का व्युत्सर्ग करता है तथा जो पवित्र और त्यक्त - देह है वह ही महाजय का हेतु श्रेष्ठ यज्ञ करता है ।"
४. के ते जोई ? के व ते जोइठाणे ? का ते सुया ? किं व ते कारिसंगं ? | हाय ते करा सन्ति ? भिक्खू ! कयरेणु होमेण हुणासि जाई ? ।। ( उ० १२ : ४३)
"हे भिक्षो ! तुम्हारी ज्योति (अग्नि) कौन-सी है ? तुम्हारा ज्योति - स्थान (अग्निकुण्ड) कौन-सा है ? तुम्हारी करछियाँ कौन-सी हैं ? तुम्हारे कण्डे कौन-से हैं ? तुम्हारा ईंधन कौन-सा है ? तुम्हारा शान्तिपाठ कौन-सा है ? तुम किस प्रकार के होम से ज्योति में हवन करते हो ?"
५. तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्म एहा संजमजोगसन्ती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं । ।
( उ०१२ : ४४)
"तप ज्योति है, जीव ज्योति स्थान है । मन, वचन, काया के शुभ योग - करद्दियाँ हैं, शरीर कारिषांग - कण्डे हैं, कर्म ईंधन है, संयमयोग शान्तिपाठ है। ऐसे ही होम से मैं हवन करता हूँ। ऋषियों ने ऐसे ही होम को प्रशस्त कहा है । "