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३८. क्रान्त वाणी ६. के ते हरए ? के य ते सन्तितित्थे ? कहिंसि हासो व रयं जहासि?। आइक्ण णे संजय ! जक्खपूइया ! इच्छामो नाउं भवओ सगासे ।।
(उ० १२ : ४५) "तुम्हारा हृद कौन-सा है ? तुम्हारा शान्ति-तीर्थ कौन-सा है ? तुम किसमें स्नान कर कर्म-रज का त्याग करते हो ? यक्ष-पूजित संयत ! हम तुमसे जानना चाहते हैं, तुम बताओ । ७. धम्मे हरए बम्भे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसि हासो विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोस।।
(उ० १२ : ४६) "अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न लेश्या वाला धर्म मेरा हृद-जलाशय है। ब्रह्मचर्य मेरा शान्ति-तीर्थ है, जहाँ नहाकर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूँ। ८. एयं सिणाणं कुसलेहि दिट्ठ महासिणाणं इसिणं पसत्थं । जहिंसि बहाया विमला विसुद्धा महारिसी उत्तम ठाण पत्त।।
(उ० १२ : ४६) “यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा-दृष्ट है और यही महास्नान ऋषियों के लिए प्रशस्त है। इस धर्म-हद में स्नान कर विमल और विशुद्ध होकर महर्षि उत्तम स्थान को प्राप्त हुए हैं।
.[२] १. उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पातं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि ।।
(सू० १, ७ : १४) जो सुबह और शाम जल का स्पर्श करते हुए-जल-स्नान में मुक्ति बतलाते हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते। यदि जल-स्पर्श से ही सिद्धि होती हो तो जल में रहने वाले बहुत जीव मोक्ष प्राप्त करें। २. उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंधं व णेयारमणुस्सरंत्ता पाणापि चेवं विणिहति मंदा।।
(सू० १, ७ : १६) जैसे जल से पाप-मल दूर होता होगा वैसे ही पुण्य क्यों नहीं धुलता होगा? जल-स्नान से पाप- मल धुलने की बात मनोकल्पना मात्र है। जिस तरह अन्धा पुरुष