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________________ ३८. क्रान्त वाणी ३७७ ५. बहुसो वि लद्धविजडे को उच्चतम्मि विद्यमओ णाम। बहुसो वि लद्धविजडे णीचत्ते चावि किं दुक्खं ।। (भग० आ० १२३१) इस जीव ने बहुत बार उच्च गोत्र पाकर छोड़ा है। अब उच्च गोत्र मिला है, तो उसमें क्या विस्मय है ? बहुत बार नीच गोत्र को पाकर छोड़ा है। अब उसे पाकर दुःख क्यों ? ६. उच्चत्तणम्मि पीदी संकप्पवसेण होइ जीवस्स। णीचत्तणे ण दुक्खं तह होइ कसायबहुलस्स।। (भग० आ० १२३२) जीव को उच्च गोत्र में प्रीति संकल्प के वश होती है नीच गोत्र में दुःख कषायबहुल को होता है। ७. उच्चत्तणं व जो णीचत्तं पिच्छेज्ज भावदो तस्स। ... उच्चत्तणे व णीचत्तणे वि पीदी ण किं होज्ज ।।(भग० आ० १२३३) जो उच्च और नीच गोत्र को समान भाव से देखता है उसे उच्चत्व की तरह नीचत्व में भी प्रीति क्यों नहीं होगी? ८. णीचत्तणं व जो उच्चत्तं पेच्छेज्ज भावदो तस्स। णीचत्तणेव उच्चत्तणे वि दुक्खं ण किं होज्ज । ।(भग० आ० १२३४) जो नीचत्व और उच्चत्व को समान भाव से देखता है, उसे नीचत्व की तरह उच्चत्व में दुःख क्यों नहीं होगा? ६. तह्मा ण उच्चणीचत्तणाइं पीदिं करैति दुःक्खं वा। __ संकप्पो से पीदीं करेदि दुक्खं च जीवस्स ।। (भग०आ० १२३५) अतः उच्चत्व प्रीति उत्पन्न नहीं करता और न नीचत्व दुःख । जीव का संकल्प ही प्रीति करता है अथवा दुःख। १०. कुणदि य माणो णीचागोदं पुरिसं भवेसु बहुएसु ।(भग० आ० १२३६) - अभिमान मनुष्य को अनेक भवों में नीच गोत्र प्राप्त कराता है। ११. सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दीसई जइविसेस कोई। (उ० १२ : ३७) तप की विशेषता तो साक्षात् दीख रही है, जाति की कोई विशेषता नहीं देखी जाती।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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