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क्रान्त वाणी
१. जातिवाद
१. से असई उच्चागोए असई णीयागोए । णो हीणे णो अइरिते' णो पीहए ।।
(आ० २, (३) : ४६)
यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में उत्पन्न हुआ है और अनेक बार नीच गोत्र में। इससे न कोई हीन हुआ और न अतिरिक्त (बड़ा)। जीव सदा असंख्यात प्रदेशी ही रहा और उसका भव-भ्रमण नहीं छूटा। (जिसका सम्बन्ध भव-भ्रमण के साथ है) उस उच्च गोत्र की स्पृहा मत करो ।
२. इति संखाय के गोयावादी ? के माणावादी ?
कसि
वा
एगे
गिज्झे ? ?
(आ० २ (३) : ५०)
यह विचार कर कौन अपने गोत्र का वाद करेगा (ढिंढोरा पिटेगा ) ? कौन उसका अभिमान करेगा? वह किस एक वाद में गृद्ध (आसक्त) होगा ?
३. तम्हा पंडिए णो हरिसे णो कुज्झे ।
(आ० २ (३) : ५०)
अतः पण्डित (अपने उच्च गोत्र का) हर्ष न करे, न (नीच गोत्र के कारण) दूसरे के प्रति कुपित हो ।
४. णीचो वि होइ उच्चो उच्चो णीचत्तणं पुण उवेइ । जीवाणं खु कुलाई पधियस्स व विस्समंताणं ।।
(भग० आ० १२२८)
नीच उच्च हो जाता है। और उच्च पुनः नीचत्व को प्राप्त कर लेता है। जीवों के लिए कुल पथिकों के विश्राम स्थल की तरह है।
१. कालमणतं णीचागोदो होदूण लहइ सुगिमुच्चं ।
जोणीमिदससलागं ताओ, वि गदा अतंणाओ ।। भग० आ० १२३०
२. उच्चासु व णीच्चासु व जोणीसु ण तस्स अत्थि जीवस्स ।
बुढ्ढी वा हाणी वा सव्वत्थ वि तित्तिओ चेव ।। भग० आ० १२२६