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३७. दर्शन
टिप्पणी
(पृ० ३६१ से सम्बन्धित) १. ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा की ज्ञान-शक्ति को प्रगट होने से रोके, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। ज्ञान पाँच तरह के होते हैं : (१) इन्द्रिय व मन के सहारे से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान, (२) शास्त्रों के अध्ययन व सुनने से जो ज्ञान होता है, व श्रुतिज्ञान; (३) किसी सीमा के अन्दर के पदार्थों का इन्द्रिय आदि के सहारे बिना ही जो ज्ञान होता है, वह अवधिाज्ञान; (४) बिना इन्द्रिय आदि की सहायता के संज्ञी जीवों के मनोगत भावों का ज्ञान होना मनःपर्यवज्ञान और (५) पदार्थों का सम्पूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान-इस तरह ज्ञान के पाँच भेद हैं।
२. दर्शनावरणीय कर्म-दर्शन-आत्मा को देखने की शक्ति को रोकनेवाले कर्म को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। निद्रा-सजग नींद; निद्रानिद्रा-कठिनाई से जागने वाली नींद; प्रचला-बैठे-बैठे या खड़े-खड़े नींद आना; प्रचला-प्रचला-चलते-फिरते नींद का आना; स्त्यानगृद्धि-दिन में विचारे हुए काम को नींद में ही कर डालना-नींद के ये पाँच भेद हैं। पाँचों प्रकार के निद्रा-भाव दर्शनावरणीय कर्म के उसी नाम के उपभेद के उदय से होते। निद्रा के भेदों के अनुसार ही इन उपभेदों के नाम निद्रा दर्शनावरणीय आदि कर्म हैं।
चक्षुदर्शन-आँख के द्वारा पदार्थों का सामान्य बोध होना । अवधि अचक्षुदर्शन-आँख बिना त्वचा, कान, जिहा आदि से पदार्थों का सामान्य बोध और मन के सहारे बिना ही किसी खास सीमा के अन्दर रहे रूपी पदार्थों का सामान्य बोध । केवलदर्शन-सम्पूर्ण पदार्थों का पूर्ण सामान्य बोध । दर्शनावरणीय कर्म चारों प्रकार के दर्शनों का अवरोध करता है।
३. वेदनीय कर्म-जिस कर्म के सुख-दुःख का अनुभव होता हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । सुखात्मक व दुःखात्मक अनुभूति के भेद से यह कर्म साता वेदनीय व असाता वेदनीय दो प्रकार का होता है।
४. मोहनीय कर्म-जो कर्म आत्मा को मोह-विहल करे, स्व-पर विवेक में बाधा पहुँचावे, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। आत्मा के सम्यक्त्व या चरित्र-गुण की घात करने से यह कर्म दर्शन व चरित्र मोहनीय दो तरह का होता है।
५. आयुकर्म-जो कर्म प्राणी की जीवन-अवधि-आयु को निर्धारित करे उसे आयु कर्म कहते हैं। जीव की नरकादि गति के अनुसार आयु कर्म के चार भेद हैं।
६. नामकर्म-जो कर्म प्राणी की गति, शरीर, परिस्थिति आदि का निर्मायक हो उसे नामकर्म कहते हैं। शुभ-अशुभ भेद से यह दो तरह का है।
७. गोत्र कर्म-वह कर्म है जो मनुष्य के ऊँच-नीच कुल का निर्धारण करे।
८. अन्तराय कर्म-जो कर्म दान, लाभ, भोग-उपभोग, पराक्रम-इन चार बातों में रुकावट डाले, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं।