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१२. अज्ञान-क्षय-क्रम
१. ओयं वित्तं समादाय झाणं समुप्पज्जइ ।
धम्मे ठिओ अविमणो निव्वाणमभिगच्छइ ।।
( दशा० ५ : १)
राग-द्वेष रहित निर्मल चित्तवृत्ति को धारण करने से जीव धर्म-ध्यान को प्राप्त करता है। जो शंकारहित मन से धर्म में स्थित होता है, वह निर्वाण-पद की प्राप्ति करता है।
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२. ण इमं चित्तं समादाय भुज्जो लोयंसि जायइ । अप्पणे उत्तमं ठाणं सन्नि-णाणेण जाणइ । ।
( दशा० ५ : २)
इस प्रकार द्वेषरहित निर्मल चित्त को धारण करने वाला मनुष्य इस लोक में बारबार जन्म नहीं लेता; वह संज्ञि ज्ञान से अपने उत्तम स्थान को जान लेता है।
३. अहातच्चं तु सुमिणं खिपं पासेति संवुडे । सव्वं वा ओहं तरति दुक्ख - दोय विमुच्चइ ।।
महावीर वाणी
( दशा० ५ : ३)
संवृतात्मा शीघ्र ही यथातथ्य स्वप्न को देखता है और सर्व प्रकार से संसाररूपी समुद्र से पार हो, शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। ४. पंताइं भयमाणस्स विवित्तं सययणासणं ।
अप्पाहारस्स दंतस्स देवा दंसेंति ताइणो ।।
( दशा० ५ : ४)
जो अन्त-प्रान्त आहार का भोजन करने वाला होता है, जो एकांत शयनासन का सेवन करता है, जो अल्पाहारी और दांत - इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है तथा जो भटकाय के जीवों का त्राता होता है, उसे देव शीघ्र ही दर्शन देते हैं ।
५. सव्व-काम-विरत्तस्स खमणो भया- भेरवं ।
तओ से ओही भवइ संजयस्य तवस्सिणो ।।
( दशा० ५ : ५)
जो सर्व काम से विरक्त होता है, जो भय-भैरव को सहन करता है, उस संयमी और तपस्वी मुनि के अवधिज्ञान उत्पन्न होता है।
६. तवसा अवहटुलेस्सस्स दंसणं परिसुज्झइ ।
उड्ड अहे तिरियं च सव्वमणुपस्सति । ।
(दशा० ५ : ६)
जो तप से अशुभ लेश्याओं को दूर हटा देता है, उसका अवधिदर्शन विशुद्ध-निर्मल-हो जाता है और फिर वह ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक के जीवादि पदार्थों को सब तरह से देखने लगता है।