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३७. दर्शन
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परमार्थ का संस्तव-परिचय, तत्त्वज्ञानी-जो परमार्थ को अच्छी तरह पा चुके उनकी सेवा तथा सन्मार्ग-भ्रष्टता और कुदर्शन का वर्जन-ये ही सम्यक्त्व की श्रद्धा-सत्य श्रद्धान के लक्षणं हैं। ६. निस्संकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमढदिट्टी य। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ।।
(उ० २८ : ३१) (१) निःशंका, (२) निष्कांक्षा, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढदृष्टि, (५) उपवृंहण, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना-ये आठ सम्यक्त्व की सच्ची श्रद्धा के अंग हैं। ७. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं दंसणे उ भइयव्वं ।
सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ।। (उ० २८ : २६)
सम्यक्त्व.विहीन-सच्ची श्रद्धा बिना चारित्र संभव नहीं है, श्रद्धा होने से ही चारित्र होता है। सम्यक्त्व में चारित्र की भजना (विकल्प) है। सम्यक्त्व और चारित्र युगपत्-एक साथ उत्पन्न होते हैं, और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं होते, वहाँ पहले सम्यक्त. होता है। ८. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।।
(उ० २८ : ३०) जिसके श्रद्धा नहीं है, उसके सम्यक्-सच्चा ज्ञान नहीं होता और सच्चे ज्ञान बिना चारित्र गुण नहीं होते और चारत्रि गणों के बिना कर्म-मुक्ति नहीं होती और कर्ममुक्ति बिना निर्वाण नहीं होता। ६. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई।। (उ० २८ : ३५)
ज्ञान से जीव पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से आरुव का निरोध करता है और तप से कर्मों को झाड़कर शुद्ध होता है। १०. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
एयंमग्गमणुप्पत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं।। (उ० २८ : ३) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--इस मार्ग को प्राप्त हुए जीव सुगति को जाते हैं।