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३७. दर्शन ७. सुसमाहियलेस्सस्स अवितक्कस्स भिक्खुणो।
सव्वतो विप्पमुक्कस्स आया जाणाइ पज्जवे ।। (दशा० ५ : ७)
जो साधु भली प्रकार स्थापित शुभ लेश्याओं को धारण करने वाला होता है, जिसका चित्त तर्क-वितर्क से चंचल नहीं होता-इस तरह जो सर्व प्रकार से विमुक्त होता है, उसकी आत्मा मन के पर्यवों को जान लेती है-उसे मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। ८. जया से णाणावरणं सव्वं होइ खयं गयं ।
तओ लोगमलोगं च जिणो जाणति केवली।। (दशा० ५:८)
जिसस समय मुनि का ज्ञानावरणीय कर्म सब प्रकार से क्षय-गत हो जाता है, उस समय वह केवलज्ञानी और जिन हो लोक-अलोक को जानने लगता है। ६. जया से दरसणावरणं सलं होइ खयं गयं । . तओ लोगमलोग च जिणो पासति केवलि।। (दशा० ५ : ६) - जिस समय उस मुनि का दर्शनावरणीय कर्म सब प्रकार से क्षय-गत होता है, उस समय वह जिन और केवली हो लोक-आलोक को देखने लगता है। १०. पडिमाए विसुद्धाए मोहणिज्जं खयं गयं ।
असेसं लोगमलोगं च पासेत्ति सुसमाहिए।। (दशा० ५ : १०)
प्रतिमा के विशुद्ध आराधन से जब मोहनीय कर्म क्षय-गत होता है, तब सुसमाहित आत्मा अशेष-सम्पूर्ण-लोक और अलोक को देखने लगता है। ११. जहा मत्थयसूइए हंताए हम्मइ तले।
एवं कम्माणि हम्मति मोहणिज्जे खयं गए।। (दशा० ५ : ११)
जिस तरह अग्रभाग रूपी सूची से छेदन करने पर ताल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय होने से सर्व कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। १२. सेणावतिम्मि निहते जहा सेणा पणस्सती।
एवं कम्माणि पणस्संति मोहणिज्जे खयं गए।। (दशा० ५ : १२)
जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना नाश को प्रापत होती है, उसी तरह मोहनीय कर्म के क्षय होने पर सर्व कर्म नाश को प्राप्त होते हैं। १३. धूमहीणो जहा अग्गी खीयति से निरिंधणे।
एवं कम्माणि खीयंती मोहणिजजे खयं गए।। (दशा० ५ : १३)
जिस तरह अग्नि ईंधन के अभाव में धूमरहित होकर क्रमशः क्षय को प्राप्त होती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय होने पर सर्व कर्म नाश को प्राप्त होते हैं।