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________________ महावीर वाणी ११. रयणत्तये वि लद्वे तिव्व-कसायं करेदि जइ जीवो। तो दुग्गईसु गच्छदि पणट्ठ-रयणत्तओ होउं । । (द्वा० अ० २६६) रत्नत्रय पा लेने पर भी यदि जीव तीव्र कषाय करता है तो रत्नत्रय का नाश कर दुर्गतियों में जाता है। १२. रयणु व्व जलहि-पडियं मणुयत्त त पि होदि अइदुलहं। __ एवं सुणिच्छइत्ता मिच्छ-कसाए य वज्जेह ।। (द्वा० अ० २६७) समुद्र के जल में गिरे हुए रत्न की प्राप्ति के समान मनुष्यत्व की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा निश्चय करके मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ो। १३. अहवा देवो होदि हु तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । तो तव-चरणं ण लहदि देस-जमं सील-लेसं पि।। (द्वा० अ० २६८) . अथवा यह जीव देव भी हो जाय और वहाँ कदाचित् समयक्त्व भी पा ले तो भी तप और चारित्र नहीं पाता, देशव्रत और शीलव्रत की लेशमात्र भी प्राप्ति नहीं करता। १४. मणुव-गईए वि तओ मणवु-गईए महव्वय सयलं। मणुव-गदीए ज्झाणं मणुव-गदीए वि णिव्वाणं ।। (द्वा० अ० २६६) इस मनुष्य-गति में ही तप का आचरण होता है, इस मनुष्य-गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, इस मनुष्य-गति में ही शुभ ध्यान होता है और इस मनुष्य-गति में ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। १५. इय दुलहं मणुयत्तं लहिऊणं जे रमन्ति विसएसु । ते लहिय दिव्व-रयणं भूइ-णिमित्तं पजालंति ।। (द्वा० अ० ३००) ऐसा यह दुर्लभ मनुष्यत्व पाकर भी जो इन्द्रियों के विषयों में रमण करते हैं वे दिव्य रत्न को पाकर उसे जलाकर राख कर डालते हैं। १६. इय सव्व-दुलहं-दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च । मुणिऊएण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि।। ___ (द्वा० अ० ३०१) इस प्रकार संसार में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को सब दुर्लभों से भी दुर्लभ जानकर इन तीनों का महान् आदर करो।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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