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________________ २. उपदेश ५. गहिउज्झियाई मणिवर कलेवराई तमे अणेयाई। ताणं णत्थि पमाणं अणंतभवसायरे धीर।। (भा० पा० २४) हे धीर पुरुष ! तूने इस अनन्त संसार-समुद्र में जो अनेक शरीर ग्रहण किये और छोड़े हैं, उनकी कोई गिनती नहीं है। ६. रयणत्ते सुअलद्धे एवं भमिओसि दीहसंसारे। इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तं समायरह।। (भा० पा० ३०) रत्नत्रय-सम्यकज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति न होने से हे जीव ! तू ने इस प्रकार दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण किया है। अतः तू रत्नत्रय का आचरण कर, 'ऐसा जिन भगवान ने कहा है। ७. अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं चरदिह चारित्तमग्गुत्ति।। (भा० पा० ३१) आत्मा में लीन आत्मा निश्चय रूप से सम्यक दृष्टि है। आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है, वह सम्यज्ञान है और आत्मा में तन्मय होकर आचरण करता है, वह चारित्र है। इस प्रकार यह मोक्ष का मार्ग है। ८. रयणं चउप्पहे पिव मणुयत्तं सुठु दुल्लहं लहिय। मिच्छो हवेइ जीवो. तत्थ वि पावं समज्जेदि ।। (द्वा० अ० २६०) जैसे चौराहे में गिरा हुआ रत्न बड़े भाग्य से हाथ लगता है, वैसे ही (अन्य गतियों से निकल कर) मनुष्य गति पाना अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसा दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर भी जीव मिथ्यादृष्टि म्लेच्छ होकर पाप का उपार्जन करता है। ६. अह होदि सील-जुत्तो, तह वि ण पावेइ साहु-संसग्गं । अह तं पि कह वि पावदि सम्मत्तं तह वि अइदुलहं।। (द्वा० अ० २६४) मनुष्य शील-सम्पन्न हो जाने पर भी साधु पुरुषों का संसर्ग नहीं पाता। यदि वह भी कभी पा जाता है तो सम्यक्त्व का पाना अत्यन्त दुर्लभ है। १०. सम्मत्ते वि य लद्धे चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो। अह कह वि तं पि गिण्हदि, तो पालेदं ण सक्केदि।। (द्वा० अ० २६५) सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर भी जीव चारित्र ग्रहण नहीं करता। यदि कभी चारित्र ग्रहण कर लेता है तो उसका पालन नहीं कर पाता। .
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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