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________________ महावीर वाणी स्त्री आदि के अनुकूल स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं। वे विवेक को मन्द कर देते हैं। आत्मार्थी साधक वैसे स्पर्शो में मन न करे। क्रोध का वर्जन करे, मान को जीते, माया का सेवन न करे और लोभ को छोड़ दे १२ ८. जे संखया तुच्छ परप्पवाई ते पिज्ज दोसाणुगया परज्झा । एए अहम्मे त्ति दुर्गुछमाणो कंखे गुणे जाव सरीर-भेओ ।। (उ० ४ : १३) जो अन्य प्रवादी 'जीवन साँधा जा सकता है - ऐसा मानने वाले हैं, वे निस्सार कथन करने वाले हैं। वे राग और द्वेष से ग्रस्त होने के कारण पराधीन हैं, अधर्मी हैं, ऐसा सोचकर दुर्गुणों से घृणा करता हुआ मुमुक्षु शरीर-भेद सद्गुणों की आराधना करता रहे। ३. रत्नत्रय का आदर करो १. भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए । पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव ! ।। (भा० पा० ८) हे जीव ! तूने भयंकर नरक, तिर्यञ्च कुदेव और कुमनुष्यों की गति में जन्म ग्रहण कर तीव्र दुःख का अनुभव किया है। अब जिन - भावना को भा । २. असुईवीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ।। ( भा० पा० १७) पुरुष ! तू अनेक माताओं की अशुचि, वीभत्स और गन्दे मैल से भरी हुई गर्भवसति में चिर काल तक रहा है I ३. तुह मरणे दुक्खेणं अण्णण्णाणं अणेयजणणीणं । रुण्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं । । (भा० पा० १६) हे पुरुष ! तुम्हारे मरने पर दुःख से व्याप्त भिन्न-भिन्न माताओं के रोने से उत्पन्न आँखों का जल समुद्र के पानी से भी अधिक है। ४. भवसायरे अणंते छिण्णुज्झियकेसणहरणालट्ठी । पुंजइ जइ को वि जए हवदि य गिरिसमधिया रासी ।। (भा० पा० २०) हे पुरुष ! इस अनन्त संसार - समुद्र में तुम्हारे शरीरों के काट कर फेंके हुए केश, नख, नाल और हड्डियों को यदि कोई देव जगत में इकट्ठा करे तो मेरु पर्वत से भी ऊँचा ढेर हो जाय ।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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