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________________ २. उपदेश ४. धर्म ही त्राण है १. इह जीविए राय ! असासयम्मि धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो । से सोयई मच्चुमुहोवणीए धम्मं अकाऊण परंसि लोए ।। ( उ० १३ : २१ ) हे राजन् ! यह जीवन अशाश्वत है। जो इस जीवन में प्रचुर सत्कृत्य नहीं करता वह मृत्यु के मुख में जाने पर पश्चात्ताप करता है तथा धर्म न करने के कारण परलोक में भी दुःखित होता है । १५ २. मरिहिसि रायं ! जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय । एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिह किंचि ।। ( उ०१४ : ४० ) हे राजन् ! इन मनोरम कामभोगों को छोड़कर तू जब-तब मरण को प्राप्त होगा । हे नरदेव ! एकमात्र धर्म ही त्राण है। इस संसार में अन्य कोई नहीं, जो त्राण हो सके । ३. अभओ पत्थिवा ! तुब्भं अभयदाया भवाहि य । अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि ? ।। (उ०१८ : ११) पार्थिव ! तुझे अभय है। जैसे तू अभय चाहता है, वैसे ही तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीव-लोक में तू हिंसा में क्यों आसक्त है ? ४. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए (उ० ६ : ६) सारे सुख सब प्रकार से जैसे स्वयं को इष्ट है वैसे ही दूसरे जीवों को हैं तथा सब प्राणियों को अपना आयुष्य प्रिय है, यह देखकर भय और वैर से उपरत मुमुक्षु प्राणियों के प्राणों का हनन न करे । ५. जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च । नो सिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव ।। ( उ०८:१० ) जगत् के आश्रित जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया - किसी भी प्रकार से दण्ड (घातक शस्त्र) का प्रयोग न करे । ६. अपुच्छिओ न भासेज्जा भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाएज्जा मायामोसं विवज्जए । । ( उ०८:४६ ) बिना पूछे न बोले । बातचीत कर रहे हों, उनके बीच में न बोले । चुगली न खाये और कपटपूर्ण झूठ से दूर रहे। ७. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि । ( उ० ६ : ७ क, ख )
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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