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________________ ३७. दर्शन ३५६ ६. अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसन्निया। अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ।। (उ० ३६ : ६६) ये सिद्ध जीव अरूपी और जीवनघन हैं । ज्ञान और दर्शन इनका स्वरूप है। जिसकी उपमा नहीं, ऐसे अतुल सुख को वे प्राप्त हैं। ७. लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसन्निया। संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगइं गया।। (उ० ३६ : ६७) सर्व सिद्ध जीव लोक के एक देश-भाग विशेष में स्थित हैं। ये केवल ज्ञान और केवल दर्शनमय स्वरूप वाले हैं। ये संसार-समुद्र के पार पहुँचे हुए उत्तम सिद्धि नामक गति को प्राप्त हैं। ८. संसारी जीव १. जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दविहा। उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा।। (पंचा० १०६) जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और निर्वाण प्राप्त । दोनों ही प्रकार के जीव चैतन्यस्वरूप और उपयोग लक्षणवाले होते हैं। संसारी जीव देह सहित होते हैं और मुक्त जीव देह-रहित होते हैं। २. पुढवी य उदगमगणी वाउ वणप्फदि जीवसंसिदा काया। देंति खलु मोहबहुलं फासं वहुगा वि ते तेसिं।। (पंचा० ११०) जीवसहित पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय अपने आश्रित जीवों को मोह से भरपूर स्पर्श विषय को देती हैं, इनके केवल स्पर्शेन्द्रिय होती है। ३. ति त्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा। मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया।। (पंचा० १११) इनमें से पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकारिक स्थावरकाय के संयोग से स्थावर हैं। अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीव त्रस हैं, क्योंकि वे गतिशील हैं। ये सभी पाँच प्रकार के जीव मन से रहित एकेन्द्रिय हैं। ४. अंडेसु पवढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया। जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया।। (पंचा० ११३)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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