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________________ महावीर वाणी अण्डों में बढ़ते हुए और गर्भ में स्थित जीवों और मूर्छित मनुष्यों की जैसी दशा होती है वैसी ही दशा एकेन्द्रियों को जानना । (अर्थात् जैसे अण्डे वगैरह की बढ़ती देखकर उनमें जीव का अस्तित्व जानते हैं, वैसे ही एकेन्द्रियों में भी जानना चाहिए।) ३६० ५. संबुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी । जाति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा ।। (पंचा० ११४ ) शंबुक, मातृवाह, शंख, सीप, बिना पैर के कृमि, लट वगैरह जो जीव स्पर्श और रस को जानते हैं, वे द्वीन्द्रिय जीव हैं । ६. जूगागुंभीमक्कणपिपीलियाविच्छियादिया कीडा । जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा । । (पंचा० ११५) जूं, कुम्भी, खटमल, चींटी और बिच्छु आदि कीट स्पर्श, रस और गंध को जानते हैं, इसलिए वे त्रीइन्द्रिय जीव हैं । ७. उद्दंस-मसय-‍ -मक्खिय- मधुकर भमरा पतंगमादीया । रूप रसं च गंध फासं पुण ते विजाणंति । । (पंचा० ११६) डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भंवरा और पतंग वगैरह स्पर्श, रस, गंध और रूप को जानते हैं, अतः वे चतुरिंद्रिय जीव हैं। ८. सुर - णर-णारय- तिरिया वण्ण-रस-प्फास-गंध- सद्दण्हु । जलचर-थलचर- खचरा बलिया पंचेंदिया जीवा ।। (पंचा० ११७) देव, मनुष्य, नारकी और तिर्यंच स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द को जानते हैं। तिर्यंच जलचर, जलचर और नभचर के भेद से तीन प्रकार के हैं। ये सब जीव पंचेन्द्रिय होते हैं। इनमें से कुछ जीव मनोबल सहित होते हैं अर्थात् देव, मनुष्य और नारकी तो मन सहित ही होते हैं, किन्तु तिर्यंच मनसहित भी होते हैं और मनरहित भी होते हैं । ६. संकप्पमओ जीओ सुहदुक्खमयं हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ।। ( द्वा० अ० १८४ ) जीव संकल्पमय होता है, संकल्प सुख-दुःखात्मक है। देह में मिला हुआ होने पर भी जीव ही सब जगह सुख-दुःख का अनुभव करता है। 1 १०. देहेमिलिदो वि पिच्छदि देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सद्दं । देहमिलिदो वि भुंजदि देहमिलिदो वि गच्छेदि । । ( द्वा० अ० १८६ )
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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