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महावीर वाणी ११. अणंतकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्नयं ।
अजीवाण य रूवीण अतरेयं वियाहियं ।। (उ० ३६ : १४)
अजीव रूपी पुदगलों के अलग-अलग होकर फिर से मिलने का अंतर कम से कम एक समय और अधिक से अधिक अनन्त काल तक कहा गया है। १२. वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा।
संठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा।। (उ० ३६ : १५)
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान (आकार) इनकी अपेक्षा से पुद्गलों के परिणाम-अवस्थान्तर भेद-पाँच प्रकार के होते हैं।
७. सिद्ध जीव १. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया। (उ० ३६ : ४८)
जीव दो तरह के बताए गए हैं-(१) संसारी और (२) सिद्ध। २. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया।
इहं बोंदिं चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई।। (उ० ३६ : ५६)
सिद्ध अलोक में रुकते हैं। लोक के अग्र भाग में स्थित होते हैं। मनुष्य लोक में शरीर को छोड़ते हैं और लोक के अग्र भाग में जाकर सिद्ध होते हैं। ३. तत्थ सिद्धा महाभागा लोयग्गम्मि पइट्ठिया।
भवप्पवंच उम्मुक्का सिद्धिं वरगइं गया।। (उ० ३६ : ६३)
महा भाग्यवंत भव-प्रपंच से मुक्त, श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त होनेवाले सिद्ध वहाँ लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं। ४. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ।। तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे।। (उ० ३६ : ६४)
चरम भव में जीव के शरीर की ऊँचाई होती है, उसके तीन भाग के एक भाग को छोड़कर जो ऊँचाई रहती है, वही उस सिद्ध जीव की ऊँचाई रहती है। ५. एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य।
पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य।। (उ० ३६ : ६५)
एक-एक जीव की अपेक्षा से सिद्ध सादि और अंत-रहित हैं। समूचे समुदाय की दृष्टि से सिद्ध अनादि और अंत-रहित हैं।