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________________ ३५७ ३७. दर्शन ४. धम्मो अहम्मो आगासं दव्वं इक्किक्कमाहियं। अणंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो।। (उ० २८ : ८) धर्म, अधर्म, आकाश-ये तीन द्रव्य एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव-ये तीन द्रव्य अनन्त हैं। ५. धम्माधम्मे य दोऽवेए लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए।। (उ० ३६ : ७) धर्म और अधर्म ये समूचे लोक में व्याप्त हैं। आकाश लोक-अलोक दोनों में विस्तृत-फैला हुआ है और समय-समय क्षेत्र में है। ६. एगत्तण पुहत्तेण खंधा य परमाणुणो। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा ते उ खेत्तओ।। (उ० ३६ : ११) अनेक परमाणुओं के एकत्व से स्कंध बनता है। उसके पृथकत्व होने से परमाणु बनते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे परमाणु लोक के एक प्रदेश मात्र में और स्कंध एक प्रदेश या समूचे लोक में व्याप्त हैं। ७. धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया। अपज्जवसिया चेव सव्वद्धं तु वियाहिया।। (उ० ३६ : ८) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों द्रव्य काल की अपेक्षा अनादि और अनंत हैं अर्थात् सदा काल शाश्वत हैं-ऐसा कहा गया है। ८. समए वि संतई पप्प एवमेव वियाहिए। आएसं पप्प साईए सपज्जवसिए वि य।। (उ० ३६ : ६) समय-काल-भी निरंतर प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और अनंत हैं। एक-एक क्षत्र की अपेक्षा से सादि और अंत सहित हैं। ६. संतई पप्प तेऽणाई अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। (उ० ३६ : १२) प्रवाह की अपेक्षा से पुद्गल अनादि और अनन्त हैं, परन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि और सांत है। १०. असंखकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्निया। अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया।। (उ० ३६ : १३) एक स्थान में रहने की अपेक्षा से रूपी अजीव पुदगलों की स्थिति कम से कम एक और अधिक से अधिक असंख्यात काल की बतलाई है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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